अवशेष / विजय कुमार
मैं किन्हीं अनिवार्यताओं के साथ हूँ
फिर भी किसी और समय की
तलाश करता हुआ
जहाँ मैं तुमसे वे शब्द पाता हूँ
जिनमें एक असहनीय छटपटाहट है
कुछ पलों के लिए फैलाता हूँ एक कवि का जाल
और फिर हताश समेट लेता हूँ
एक धूसर कोलाहल में थमी हुई कोई स्तब्धता
किसी बाँसुरी के गले में फँसी हुई हलचलें
जहाँ एक दूसरे में घुल मिल गए हैं
जीवन और कला
एक चीत्कार किसी उदास सिहरन में टँगा रह गया
मैं भूल गया सब क़िस्से
पर कोई कम्पन जो अभी भी याद है
मैं शब्दकोशों के बाहर जीवन देख रहा हूँ
ये शब्द
देर रात सड़क पर भटकती उन बदनाम औरतों की तरह हैं
वे औरतें जो दूसरों के चेहरों को पढ़ती हैं
ये मुहावरे जो कल शायद खो जाएँ
पर इनमें मेरी परछाइयाँ फैली हुई हैं
मेरे विचार मेरा साथ छोड़ जाते हैं
मेरे पास कोई अर्थ नहीं बचा है
फिर भी मैं भटकता हूँ
मैं भटकता हूँ
इसलिए मेरी सीमाएँ नहीं हैं।