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अवसाद / दिनकर कुमार
Kavita Kosh से
दुःख की पराकाष्ठा पर पहुँचकर
किस आघात की प्यास
अभी भी बनी हुई है
नागफनी के जंगल में
नंगे-पैर दौड़ते रहे
सुख की तलाश में
प्रेम के बदले में
अपनी झोली में
बटोरते रहे घृणा
धातु नहीं था
न ही कोई
दुर्लभ रत्न ही था
फिर भी कसा गया था
कसौटी पर
पेशेवर जौहरी कहते रहे
पत्थर का टुकड़ा है
किसी ने प्रेम के बदले में
माँग लिया हृदय
किसी ने प्रेम के बदले में
माँग ली
हृदय की स्वतंत्रता
रिक्त पात्र की तरह
इस देह में से
उड़ेल लिया गया
भावनाओं का
कतरा-कतरा
और कहा जाता है
रिश्तों का कर्ज़ चुकाते हुए
प्राण दे दो
उत्तरदायित्व के नाम पर
शहादत ज़रूरी है
आघातों की प्रतीक्षा में
रोम-रोम करुणरस के
अनुवाद बन गए हैं
नैनों में अवसाद रह गए हैं ।