अष्टादश प्रकरण / श्लोक 91-100 / मृदुल कीर्ति
अष्टावक्र उवाचः
श्रेष्ठ और निकृष्ट दोनों, भावनाएं शेष हों,
निष्काम शोभित सर्वदा, चाहें भिक्षु, राजा विशेष हों.----९१
निष्कपट और सरल योगी को कहाँ, स्वच्छंदता ,
तत्व का निश्चय कहाँ, संकोच की प्रतिबन्धता.-------९२
आत्म विश्रांति में तृप्ति, शोक आशा से परे,
ज्ञानी अभ्यान्तर में अनुभव, क्या कहे,किस्से करे.----९३
स्वप्न जागृत और सुषुप्ति, धीर तीनों काल में,
सम्बन्ध केवल आत्मा से ही रखें त्रैकाल में.-----९४
बुद्धि,चिंता, इन्द्रियों के, सहित भी और रहित भी,
अहम से भी सन्निहित, ज्ञानी अहम् से विहित भी.-----९५
न सुखी, न ही दुःखी, न मुक्त न ही मुमुक्ष है,
किंचन अकिंचन से परे,संग और विरक्ति तुच्छ है.-----९६
विक्षेप में विक्षिप्त और पंडित नहीं पांडित्य में,
जड़ नहीं जड़ता में, चेतन पूर्ण है, चैतन्य में.-----९७
समभाव हर स्थिति में ज्ञानी, जो मिला संतोष है,
कृत और अकृत कर्मों में निःस्पृह, मन विरक्ति कोष है.-----९८
सम भाव स्तुति और निंदा, है वही ज्ञानी, परे,
न मृत्यु में न हर्ष में, उद्विग्न, जीवन को करें.-----९९
नगर वन सब एक, जिसकी ज्ञान, धी, प्रज्ञा महे,
सम भाव स्थित वह सभी, स्थान स्थिति में रहें.------१००