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असली चेहरा याद नहीं / जहीर कुरैशी

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भीतर से तो हम श्मशान हैं
बाहर मेले हैं ।

कपड़े पहने हुए
स्वयं को नंगे लगते हैं
दान दे रहे हैं
फिर भी भिखमंगे लगते हैं

ककड़ी के धोखे में
बिकते हुए करेले हैं ।

इतने चेहरे बदले
असली चेहरा याद नहीं
जहाँ न हो अभिनय हो
ऐसा कोई संवाद नहीं

हम द्वन्द्वों के रंगमंच के
पात्र अकेले हैं ।
 
दलदल से बाहर आने की
कोई राह नहीं
इतने पाप हुए
अब पापों की परवाह नहीं

हम आत्मा की नज़रों में
मिट्टी के ढेले हैं ।