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असार जीवन / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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किसको अपना प्यार दिखाऊँ,
किसको गूँधा हार पिन्हाऊँ,
कैसे बजा सुनाऊँ किसको मानस-तंत्री की झनकार।
थे पादप फूले न समाते,
थे प्रसून विकसे सरसाते,
थे मिलिंद प्रमुदित मधुमाते,
थे विहंग कल गान सुनाते,
यह विलोक उपवन में आई, खोजा, मिला न प्रेमाधार।
देख पवन को सुरभि वितरते,
कुसुमित महि में मंद विचरते,
झरनों को उमंग से झरते,
जल-प्रवाह को मानस हरते,
मोह गयी, पर हुआ नयन-गोचर न मनोहरता-अवतार।
मिले विलसते नभ में तारे,
जगमग करते ज्योति सहारे,
उदित हुआ वर विधु छवि धारे,
सुधा-सक्ति कर-निकर पसारे,
पर न बताया पता, कहाँ है वह त्रिलोक-सुंदर, सुकुमार।
खुले न हृदय-युग-नयन मेरे,
वर विवेक आ सका ने नेरे,
रहे मोद-मद-ममता घेरे,
बने न चारु भाव चित-चेरे,
       सकल सहज सुख-साधा न पूजी,
सारा जीवन हुआ असार।