अस्थान / दिनेश कुमार शुक्ल
जहाँ खत्म होती है पगडंडी की लीक
और शुरू होती है चढ़ाई खड़ी
वहाँ की नागफनी भी
मुलायम दूब-सी लगती है
वहीं चट्टानों को फोड़ कर उगा हुआ
बहुत बूढ़ा कौतुकी अकेला एक देवदारु
फुनगी पर सजाकर सूर्य का किरीट
धूप छाँव की लीला करता रहता है
बादलों के तैरते रंगमंच पर
हारे-थके पहुँच पाये यहाँ
तो समेकित समस्त छन्द सृष्टि का
पूरा का पूरा दिख जाएगा एक बार
एक-एक आवृत्ति आलोड़न एक-एक
एक-एक कोशिका इलेक्ट्रान हैड्रान क्वार्क
आगत-अनागत समस्त काल
दुख-सुख न्याय-अन्याय का तानाबाना महीन
सच और झूठ के सपाट की सलवट एक-एक
पल भर को दिखेगी साफ-साफ
और तब
उस पल को भले ही वापस ले जाय
जल और वल्कल की सुगन्ध से भरी हवा...
जूते के तले में निकली हुई कील तब
चुभ कर भी
चुभना छोड़ देगी
यहाँ से आगे
कहीं भी जाया जा सकेगा
कोई प्रतिबन्ध नहीं
सब सुगम सब सुगम्य
यह जगह एक अस्थान है
जहाँ क्षमा माँग
बहुत सहेज कर
आगे पाँव धरता है कवि।