भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अस्सी के प्रति / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
कुहरे से लदी ब्रह्मवेला है सामने
जाने कब चुपके से तुम उठे, चले गये
कल दिनभर ठिठुरन का मारा मन बेसुध था
पिंजरे से निकला था, हारा-सा, साँझ ढले
इधर-उधर भटका था, यहाँ-वहाँ अटका था
मिला नहीं कोई भी जिससे मैं मिलूँ गले
मृग-शावकों की खाल ओढ़े तेंदुओं की भीड़
फैली थी चौतरफा, चेहरे थे नये-नये
सुनता था-परिर्वतन करने को आओगे
दुनिया को भला-बुरा कुछ तो दे जाओगे
लेकिन तुम भी औरों की ही भाँति रहे
लहरों से लड़े नहीं, धारा के साथ बहे
अन्धकार का प्रसार बढ़ता ही चला गया
बिलख रहा दीपाधार, बुझते ही गये दिये