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अहद-ए-मायूसी जहाँ तक साज़गार आता गया / शाद आरफ़ी

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अहद-ए-मायूसी जहाँ तक साज़गार आता गया
अपने-आप में दिल-ए-बे-इख़्तियार आता गया

कुछ सुकूँ कुछ ज़ब्त कुछ रंग-ए-करार आता गया
अल-ग़रज़ इख़्फा-ए-राज-ए-कुर्ब-ए-यार आता गया

उड़ते उड़ते उस के आने की ख़बर मिलती रही
बाल खोले मुज़्दा-ए-गेसू-ए-यार आता गया

रफ़्ता रफ़्ता मेरी अल-ग़रज़ी असर करती रही
मेरी बे-परवाइयों पर उसे का प्यार आता गया

जस्ता जस्ता लहलहाया गुलशन-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर
रफ़्ता रफ़्ता दस्ता-ए-गुल पर निखार आता गया

नींद आँखों में मगर आती गई उड़ती गई
दोश-ए-निकहत पर पयाम-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार आता गया

उस ने जिस हद तक भी हम से दास्तान-ए-ग़म सुनी
हम को इस निस्बत से फ़न-ए-इख़्तिसार आता गया

गा़लिबन ये भी है मेरी कामयाबी का सबब
अपनी नाकामी पे गुस्सा बार बार आता गया

उन में शामिल मुस्कुराते फूल भी तारे भी हैं
जिन दरीचों से शुऊर-ए-हुस्न-ए-यार आता गया

आगे आगे आशियाने ख़ार-ओ-ख़स चुनते चले
पीछे पीछे तख़्त-ए-ताऊस-ए-बहार आता गया

इस क़दर नज़दीक-तर आती रही क़दमों की चाप
जिस क़दर ख़दशा ख़िलाफ़-ए-इंतिजार आता गया

उस के रूज्हान-ए-नज़र में दिलकशी पाते हुए
ए‘तिबार-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार आता गया

रंग लाएगी हमारी तंग-दस्ती एक दिन
मिस्ल-ए-ग़ालिब ‘शाद’ गर सब कुछ उधार आता गया