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अहम् ब्रह्मास्मि / किरण मिश्रा
Kavita Kosh से
जैसे आत्माएँ दबी हो आकाँक्षाओं में
और कामनाएँ अपने नुकीले नाख़ूनों से
फाड़ रही हों बुद्ध के साधन चातुष्टय को
माया डोर ले हाथों में
बना कर कठपुतली
दिग्भ्रमित करती है दुनिया के पथिक को
भ्रमित पथिक कहाँ सुन पाता है
आत्मा की वेदना और कहाँ देख पाता है
माया के खेल को
वो मगन रहता है अहम् ब्रह्मास्मि में