भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अहल-ए-उल्फ़त के हवालों पे / सुदर्शन फ़ाकिर
Kavita Kosh से
अहल-ए-उल्फ़त के हवालों पे हँसी आती है
लैला मजनूँ के मिसालों पे हँसी आती है
जब भी तक़मील-ए-मोहब्बत का ख़याल आता है
मुझको अपने ख़यालों पे हँसी आती है
लोग अपने लिये औरों में वफ़ा ढूँढते हैं
उन वफ़ा ढूँढनेवालों पे हँसी आती है
देखनेवालों तबस्सुम को करम मत समझो
उन्हें तो देखनेवालों पे हँसी आती है
चाँदनी रात मोहब्बत में हसीन थी "फ़ाकिर"
अब तो बीमार उजालों पे हँसी आती है