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अेक सौ तैंतीस / प्रमोद कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
जी घबरावै
-मां रो
जद काढै गाळ बीं री टाबरी नैं कोई
बतावो तो खरी किसी मां नीं रोई
हर खेतर मांय
भाखा सै सूं पैलां कळपी है
बीं रै आंसुवां मांय ई सभ्यता फळपी है
कोई तो मां रो सिसकणो सुणो
होळै-होळै सींवां खिसकणो सुणो
हांडी कठैई तो सबद री खळकी है
चालो सबद बटोरां
ल्यावां नीरो
-गा रो
जी घबरावै
-मां रो।