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आ वसंती हवा / प्रेमलता त्रिपाठी

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भौन कागा न बोले सँदेशा खुशी,ये उदासी भरे शून्य संज्ञान हैं ।
कौन जाने कहाँ खो गयी हास जो,मोहतीं थीं कभी प्रीत मुस्कान हैं ।

कुंज की वीथिका सुप्त सी है लगी,जागती धुंध में धिक् दबी भ्रांतियाँ,
रीझते थे जहाँ दुःख देते वहीं, मान को आपसी द्वंद्व अज्ञान हैं ।

स्वार्थ है जीव में अंत चाहे नहीं,जो न रोके कभी हार माने नहीं,
लोक माया न भाये हमें खेल ये,जो सभी दुर्दशा देख अंजान हैं ।

मौन तोडे़ सुधी भूल जायें हठी,ज्यों खुशी से भरा द्वार संसार हो ।
आ वसंती हवा बावरी मंत्र दे, झूमले नाच ले खेत मैदान हैं। ।

श्याम तेरे बिना दीन है कामना,चैन लेने न दे प्राण दुश्वारियाँ,
यों व्यथा में जियें प्रेम की हार क्यों,जीत जाते यहाँ कृत्य हैवान हैं।