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आँख लगाई / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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आंख लगाई
तुमसे जब से हमने चैन न पाई।
छल जो, प्राणों का सम्बल हुआ,
प्राणों का सम्बल निष्कल हुआ,
जंगल रमने का मंगल हुआ,
ज्योति जहाँ वहाँ अंधेरी घिर आई।
राह रही जहाँ वहाँ पन्थ न सूझा,
चाह रही जहाँ वहाँ एक न बूझा,
ऐसी तलवार चली कुनबा जूझा,
बन आई वह कि दूर हुई सगाई।