आँचल, आँगन या कि देहरी / संजय तिवारी
तुम निकले
तब बहुत अन्धेरा था
जो खोया वह सिर्फ मेरा था
रह गयी तुम्हारी आधारशिला
न कोई शिकवा
नाही कोई गिला
पर प्रश्न तो यथावत रह गए
वे प्रश्न थे ही नहीं
जो आंसुओं में बह गए
तुम जिसे रोकने निकले थे
वह तो रुका नहीं
काल का रथ
कभी? कहीं? किसी हाल में
झुका नहीं
काश? तुम सूरज के साथ चले होते
तुम यकीनन बहुत जले होते
जगमग हो सकता था आकाश
सब कुछ होता तुम्हारे पास
तुमने यह होने न दिया
गौतम?
तुमने तो मुझे ठीक से रोने भी न दिया
गोद में था राहुल
मानस में थे तुम
न जाने कहा गुम
कहा खोजती
किस पर चिल्लाती
मुझे तो
तुम्हारी तरह
ज्ञान की भाषा भी नहीं आती
आँचल? आँगन या कि देहरी
हर नज़र यहीं ठहरी
तुमने तो कहा था -
‘‘बेड़े की तरह
पार उतरने के लिये
मैंने विचारों को स्वीकार किया,
न कि सिर पर उठाये-उठाये
फिरने के लिये।’’
लेकिन अपने ही विचारो में हार गए
उन्ही विचारों को मार गए
अब वे न तुम्हारे हैं न अतीत के
वे केवल शब्द हैं व्यतीत के
व्यतीत के शब्दों से
तुम्हारे लिए
सनातन सत्यपथ खोल रही हूँ
हाँ!! मैं यशोधरा ही बोल रही हूँ।