आँचल की छाँव में/ राकेश पाठक
हाथों में ख़्वाबों के बुलबुले लिए आया था
और आँखों में मुस्कान भर रखी थी
बंद मुठ्ठियों में गुलाब की पंखुड़ियों की भीनी ख़ुशबू थी
और पैरों में अवा की थिरकन
बादलों ने
झुनझुने से
माँ के दिल की धड़कनें सुनाई
और राग मालकोश ने वंदन किया
दूर से ही मुस्कुराता चाँद
खिले फूल को बचाने को
चाँदनी बिखेर रहा था
सूर्य अपनी तपिश से
ललाट पर चुहचुहाते बूँदों को
मोतियों में बदल रहे थे
कृष्ण प्रविष्ट हो गए थे उसके रूप में
प्रकृति यशोगान कर रही थी
उस दिन हवा का रुख भी उत्तर की ओर था
अखंड व्योम भी उन आँखों में इतिहास लिख रहा था
सृजन के इस नींव में
मुक्ति के आखर अब भरे जाने थे
और वह खिला फूल
आँखें मिलाये मुस्कुरा रहा था
आँचल की छाँव में
एक और सत्यार्थ
नवसृजन की बुनियाद से
नभ को निहार रहा था.