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आँधी / महेन्द्र भटनागर

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बड़ा शोर करती उठी आज आँधी,

क्षितिज-से-क्षितिज तक घिरी आज आँधी !

समुन्दर जिसे देखकर खिलखिलाया,

निखिल सृष्टि काँपी प्रलय-भय समाया !

पुराने भवन सब गिरे लड़खड़ाकर,

बड़ी तेज़ आयीं हवाएँ हहर कर !

दिवाकर किसी का छिपा थाम दामन,

दहलता भयावह बना विश्व-आँगन !

उमड़ता नये जोश में वन्य-दरिया,

लहरता नवल होश में वन्य-दरिया !

रुकेगी न आँधी सरीखी जवानी,

बना कर रहेगी नयी ही कहानी !

असम्भव कि ठहरे रुकावट पुरानी,

शिथिल हो न पायी कभी भी रवानी !

न रोके रुकेगी बड़ी शक्तिशाली,

न फीकी पड़ेगी कभी द्रोह लाली !

कि चीलें उतरती चली आ रही हैं,

अंधेरी घटाएँ घुमड़ छा रही हैं !

मगर खोल सीना अकेला डगर पर

बढ़ा जा रहा जूझता जो निरन्तर,

वही व्यक्ति दृढ़ शक्ति-युग का तरुण है,

बदलना धरा को कि जिसकी लगन है !

विरोधी रुकावट मिटाता चला जो,

नदी शांति की नव बहाता चला जो,

वही क्रांति आभास-दृष्टा सदा से,

वही विश्व-इतिहास-स्रष्टा सदा से,

उसी की सबल मुक्त लंबी भुजाएँ

नये ख़ून से मोड़ देंगी हवाएँ !

1951