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आँसुओं में इस हृदय का / त्रिलोचन
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आसुँओं में इस हृदय का हिम गला है
भर रहा था क्या न जाने
मौन भारी था
बुझ गया दीपक, थका मन
कौन भारी था
द्वंद्व अंतर में निरंतर चुप चला है
व्योम में तारे, धरा के
दृग विवश हारे
क्षितिज में बढ़ते चरण दो
दीखते न्यारे
स्वप्न घिर घिर कर तिमिर मे ही पला है
रात धुलती है, चरण भी
ओस धोती है
पाँव छू कर जग गई फिर
घास सोती है
दूर ही है भोर, तू तम का छला है
कुछ न दीखे सोचने को
स्तब्ध बेला है
धड़कनों में और चंचल
रक्त खेला है
जो गया वह था बुरा, आया भला है
(रचना-काल - 31-10-48)