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आंख हैरान ज़हन खाली है/ सर्वत एम जमाल
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आँख हैरान ज़हन ख़ाली है
रात ने क्या सहर निकाली है
आज जब अपना हाथ ख़ाली है
हर किसी ने नज़र चुरा ली है
जिसकी गर्मी नफ़स-नफ़स है आज
हमने वो आग ख़ुद ही पाली है
इन थपेड़ों से खौफ़ क्या खाना
ये हवा अपनी देखी-भाली है
अब चिराग़ों को रौशनी दे दो
तीरगी ने कमां उठा ली है
सब बराबर हों कोई ग़म न रहे
फ़िक्र ये कितनी भोली-भाली है
दिन बुरे भी हों तो ये हैं दिन ही
रात रोशन भी हो तो काली है
अब कनाअत की फ़िक्र कर सर्वत
तूने शोहरत बहुत कमा ली है