भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आंगन का दर्द / मोहन अम्बर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लिख क़लम आज मत कर अबेर
अपने आंगन पीली कनेर।
जिस पर आ-आ कर बार बार
पत्ते पत्ते पर चोंच मार
डाली डाली आकुल चकवा
खोई चकवी को रहा टेर
लिख क़लम आज मत कर अबेर
अपने आंगन पीली कनेर।
खुद की छाया जिसको न फली
दिन भर सूरज से देह जली
जिसका दुख सुनती है केवल
जीवन संगिन-सी घर मुड़ेर
लिख क़लम आज मत कर अबेर
अपने आंगन पीली कनेर।
हल्की-सी हवा झिझोड़ गई
खिलते फूलों को तोड़ गई
जिनको चुन-चुन मेरी माँ ने
शिव के माथे कर दिया ढेर
लिख क़लम आज मत कर अबेर
अपने आंगन पीली कनेर।
इसके फूलों में गन्ध नहीं
मेरे अधरों पर छन्द नहीं
इसकी मेरी हालत ऐसी
ज्यों पड़े किसी पर समय फेर
लिख क़लम आज मत कर अबेर
अपने आंगन पीली कनेर।