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आंधी / उषारानी राव
Kavita Kosh से
निस्वर आँखों में झाँकती
पीली दुपहरी
दूर-दूर तक
कोई नहीं
दरवाजों पर
दस्तक की
गूँज आज भी है
एक काली आँधी ने
पीछा किया
जो न हवा ,न मिट्टी ,न राख से
आकृत है
किसी प्रेत की तरह
परकाया
प्रवेश करती है
इंसानी समाज
औ सभ्यता की
संवेदना को रेगिस्तान के
रेत
की तरह सोख लेती है
यह घायल हिरनी की
करुण आँखों- सी
न मरी न जीवित !
अकेली बैठी कहाँ
रो रही है !