भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आई जो हार / त्रिलोचन
Kavita Kosh से
आई जो हार
गई कहाँ कहीं
मैं हूँ लाचार
धुरियाई देह
इतनी है खेह
पथ में ही पड़े
रहे, कहाँ गेह
खोजे कब मिला
कोई आधार
उषा मुसकराय
संध्या हँस जायॉ
कोई क्या पिए
कोई क्या खाय
पल छिन दिन मास
जब हो मझधार
(रचना-काल -9-2-62)