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आओ, दे दें / कौशल किशोर

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आओ
दे दें अपनी कविताएँ
उनके हाथों में
जिनके लिए सही अर्थों में
कविताएँ होनी चाहिए

जानते नहीं
जिन खेतों में
आशा
लगन
और विश्वास के साथ
वह रोपता था
अपना खून
पसीना और श्रम

आज जमीन्दारों ने
उसे, उन खेतों से
उन फसलों से
बेदखल कर दिया है

क्या होगा?

नहीं जलेंगे
उनके घरों के चूल्हे
अब खड़े होंगे रोंगटे
गरमायेगा शरीर
उबलेगा खून
और प्रतिशोध की आग में
जलेंगी, चटकेंगी हड्डियाँ

अब खेत
नहीं पैदा करेंगे फसलें
अब खेत
पैदा करेंगे गुरिल्ले दस्ते
अब खेतों की ओर
नहीं जायेगा कोई गुलाम
बंधुआ मजदूर
अब वहाँ बनेंगे
युद्ध के मोर्चे

श्रम नहीं बिकेगा
कोठियों के हाथों
नहीं रहेगा गुलाम
जोतेदारों की ड्योढ़ियों में
वह स्वतंत्र हो
पूंजी के महल को
नस्त-नाबूद कर
करेगा नव सृजन
बनायेगा नई दुनिया।