भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आओ मुझे दिग्भ्रमित करो / कविता भट्ट
Kavita Kosh से
आओ मुझे दिग्भ्रमित करो तब तक;
जब तक लालसा थककर ,आँखें मूँद कर लुढ़क जाएगी
तब सुकूँ देकर, ऐ जिंदगी! तू क्या पाएगी?
आओ मुझे दिग्भ्रमित करो तब तक;
निरंकुश- तुम्हारा जी न भरे जब तक।
देखूँ- दानव जीतता है तुम्हारे भीतर का,
या मुस्काता उन्मुक्त देवत्व मेरे भीतर का।
मौत से अधिक कुछ नहीं, नियति तौलेगी,
अभी मौन है घड़ी, कभी मेरी बात बोलेगी।
मेरे पक्ष में नारा देगा क्रूर समय पिघलकर,
और हाँ गिड़गिड़ाएगा विविध रूप धर कर।
एकटक कालगति देखो और समीक्षा करो,
डूबा सूरज; मेरे साथ उगने की प्रतीक्षा करो।