भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आकांक्षा / आस्तीक वाजपेयी
Kavita Kosh से
शायद सितारे आज टूट जाएँगे
उसकी अस्त-व्यस्तता के बीच
कहीं कुछ ऐसा, मवाद ही तो
पर हो ज़रूर जो प्रतिभाहीन मनुष्य के साथ
भी रह जाएगा
समय के अन्त तक ।
कुछ ऐसा जो चमकेगा
किसी पहाड़ के ऊपर
एक अदृश्य बिजली की तरह ।
हर स्वप्न हर बार एक चमक
एक बात एक स्वप्न हर बार।
एक विषम अथाह विस्तार
यह मनुष्य, यह मृत्यु, हाहाकार ।
जहाँ हम जाएँगे वहीं से कभी आ रहे थे ।
करूण कर्म, ध्वस्त कपाल
प्रज्वलित स्वप्न, स्मृतियाँ अपार ।
कुर्सी से उठकर एक तरफ जाते हुए,
जाकर आते हुए
हमसे रात छूट गई ।
मैं यह करूँ, मैं वह करूँ
मैं क्या करूँ ?
उसे रोना ही था जिसे
हँसना ही था ।
कुछ तो बचना ही था,
कुछ तो बच ही गया ।