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आकांक्षा / पवन चौहान
Kavita Kosh से
सूरज को छूने की कोशिश
हर बार असफल रही
उसका तेज मुझे अंधा बना
भटका देता है रास्ता
कल्पना मात्र भी उसकी तपन का
अहसास करा देती है
सागर मापने की कोशिश भी
नाकाम रही
हर बार लहरों ने उठा
पटक दिया भॅंवर में
क्रोधावश पर्वत से टकराया भी
पर चोटिल हर बार मैं ही हुआ
वह शान से खड़ा
देखता रहा मेरी नादानी
अंत खोजने निकला आकाश में भी
पर खुद ही उसमें खो गया
मैं भी सूरज सी चमक
सागर सा हौंसला
पर्वत सी दृढ़ता
और आकाश सा अनंत
पाना चाहता हूँ