भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आकार / गोबिन्द प्रसाद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


कसमसाते हाथों के
बहुत क़रीब
लपटों में घिरा कोई आकार
रूठ कर चला गया
वह खोजना चाहता था
हर हथेली में समुद्र
समुद्र में चट्टान
चट्टान में सोया हुआ राग
राग में
बहती हुई मद्धिम आग
रगों में रंग भरती हुई जो फैल जाती
दिशाओं में गंध सी निराकार
लपटों में घिरा कोई आकार