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आकाश में सात तारे / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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जब खिल उठते हैं आकाश में सात तारे तब मैं यहाँ
घास पर बैठे रहता हूँ, पीले फल-सा लाल मेघ, मृत उज्ज्वलता
की तरह गंगासागर में डुबोकर ले आती है जैसे शान्ति
अनुगत बंगाल की नीली संध्या में-जैसे कोई केशवती कन्या
चली आयी आकाश पर:

मेरी आँखों में-बसा है वह चेहरा, जिस पर केश बिखरे हैं
पृथ्वी की किसी भी राह ने देखी न होगी कभी ऐसी कन्या-
उसके काले केशों का चुम्बन, सेमल, कटहल, जाम पर झरते
अविरल, कोई नहीं जानता होगा कि इतनी स्निग्ध गन्ध झरती है
रूपसी के केश-विन्यास से:

पृथ्वी की किसी राह पर नहीं होगी कच्चे धान की गन्ध-कलमी(पानी साग की एक किस्म) की बास
हंस के पंख, खर, पोखर के जल, चाँद, पुँठिया मछली की सोंधी गंध
चावल धोई किशोरी की भीगी कलाई, ठंडा-सा हाथ
किशोर के पाँव में चिपकी मोथी घास, लाल-लाल बटफल की
दुखद गंध छायी नीरवता-इसी में है बंगाल का प्राण

जब खिल उठते हैं आकाश में सात तारे तब पा जाता हूँ मैं संकेत।