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आखरी कलाम / पृष्ठ 3 / मलिक मोहम्मद जायसी

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मुखपृष्ठ: आखरी कलाम / मलिक मोहम्मद जायसी


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पुनि फरमाए आपु गोसाईं । तुमहि दैउ जिवाइहि नाहीं ॥
सुनि आयसु पाछे कहँ ढाए । तिसरी पौरि नाँघि नहिं पाए ॥
परत जीउ जब निसरन लागै । होइ बड कष्ट, घरी एक जागै ॥
प्रान देत सँवरै मन माहाँ । उवत धूप धरि आवत छाहाँ ॥
जस जिउ देत मोहिं दुख होई । ऐसै दुखै अहा सब कोई ॥
जौ जनत्यों अस दुख जिउ देता । तौ जिउ काहू केर न लेता ॥
लौटि काल तिनहूँ कर होवै । आइ नींद, निधरक होइ सोवै ॥

भंजन, गढन सँवारन जिन खेला सब खेल ।
सब कहँ टारि `मुहम्मद',अब होइ रहा अकेल ॥21॥

चालिस बरस जबहिं होइ जैहै । उठिहि मया, पछिले सब ऐहैं ॥
मया-मोह कै किरपा आए । आपहि काहिं आप फरमाए ॥
मैं संसार जो सिरजा एता । मोर नावँ कोई नहिं लेता ॥
जेतने परे सब सबहि उठावौं । पुलसरात कर पंथ रेंगावौं ॥
पाछे जिए पूछौं अब लेखा । नैन माँह जेता हौं देखा ॥
जस जाकर सरवन मैं सुना । धरम पाप, गुन औगुन गुना ॥
कै निरमल कौसर अन्हवावौं । पुनि जीउन्ह बैकुंठ पठावौं ॥

मरन गँजन घन होइ जस, जस दुख देखत लोग ।
तस सुख होइ `मुहम्मद', दिन दिन मानैं भोग ॥22॥

पहिले सेवक चारि जियाउब । तिन्ह सब काजै-काज पठाउब ॥
जिबराइल औ मैकाईल । असराफील औ अजराईलू ॥
जिबरईल पिरथिवीं महँ आए । आइ मुहम्मद कहँ गोहराए ॥
जिबरईल जग आइ पुकारब । नावँ मुहम्मद लेत हँकारब ॥
होइहैं जहाँ मुहम्मद नाऊँ । कहउ लाख बोलिहैं एक ठाऊँ ॥
ढूढत रहै, कहहुँ नहिं पावै । फिरि कै जाइ मारि गोहरावै ॥
कहै "गोसाइँ ! कहाँ वै पावौं । लखन बोलै जौ रे बोलावौं ॥

सब धरती फिरि आएउँ, जहाँ नावँ सो लेउँ ।
लाखन उठैं मुहम्मद, केहि कहँ उत्तर देउँ ॥23॥

जिबराइल पुनि आयसु पावै । "सूँघे जगत ठाँव सो पावै ॥
बास सुबास लेउ हैं जहाँ । नाव रसूल पुकारसि तहाँ ॥"
जिबराइल फिरि पिरथिवीं आए । सूँघत जगत ठाँव सो पाए ॥
उठहु मुहम्मद, होहु बड नेगी । देन जोहार बोलावहिं बेगी ॥
बेगि हँकारेउ उमत समेता । आवहु तुरत साथ सब लेता ॥
एतने बचन ज्योंहि मुख काढे । सुनत रसूल भए उठि ठाढे ॥
जहँ लगि जीउ मुकहि सब पाए । अपने अपने पिंजरे आए ॥

कइउ जुगन के सोवत उठे लोग मनो जागि ।
अस सब कहैं `मुहम्मद' नैन पलक ना लागि ॥24॥

उठत उमत कहँ आलस लागै । नींद-भरी सोवत नहिं जागै ॥
पौढत बार न हम कहँ भएऊ । अबहिंन अवधि आइ कब गएऊ ॥
जिबराइल तब कहब पुकारी । अबहूँ नींद न गई तुम्हारी ॥
सोवत तुमहिं कइउ जुग बीते । ऐसे तौ तुम मोहे, न चीते ॥
कइउ करोरि बरस भुइँ परे । उठहु न बेगि मुहम्मद खरे ॥
सुनि कै जगत उठिहि सब झारी । जेतना सिरजा पुरुष औ नारी ॥
नँगा-नाँग उठिहै संसारू । नैना होइहैं सब के तारू ॥

कोइ न केहु तन हेरै, दिस्टि सरग सब केरि ।
ऐसे जतन `मुहम्मद', सिस्टि चलै सब घेरि ॥25॥

पुनि रसूल जैहैं होइ आगे । उम्मत चलि सब पाछे लागै ॥
अंध गियान होइ सब केरा । ऊँच नीच जहँ होइ अभेरा ॥
सबही जियत चहैं संसारा । नैनन नीर चलै असरारा ॥
सो दिन सँवरि उमत सब रोवै । ना जानौं आगे कस होवै ॥
जो न रहै, तेहि का यह संगा ? मुख सूखै तेहि पर यह दंगा ॥
जेहि दिन कहँ नित करत डरावा । सोइ दिवस अब आगे आवा ॥
जौ पै हमसे लेखा लेबा । का हम कहब, उतर का देबा ॥

एत सब सँवरि कै मन महँ चहैं जाइ सो भूलि ।
पैगहि पैग 'मुहम्मद' चित्त रहै सब झुलि ॥26॥

पुल सरात पुनि होइ अभेरा । लेखा लेब उमत सब केरा ॥
एक दिसि बैठि मुहम्मद रोइहैं । जिबरईल दूसर दिसि होइहैं ॥
वार पार किछु सूझत नाहीं । दूसर नाहिं, को टैकै बाहीं ?॥
तीस सहस्त्र कोस कै बाटा । अस साँकर जेहि चलै न चाँटा ॥
बारहु तें पतरा अस झीना । खडग-धार से अधिकौ पैना ॥
दोउ दिसि नरक-कुंड हैं भरे । खोज न पाउब तिन्ह महँ परे ॥
देखत काँपै लागै जाँघा । सो पथ कैसे जैहै नाँघा ॥

तहाँ चलत सब परखब, को रे पूर, को ऊन ।
अबहिं को जान `मुहम्मद', भरे पाप औ पून ॥27॥

जो धरमी होइहि संसारा । चमकि बीजु अस जाइहि पारा ॥
बहुतक जनौं तुरँग भल धइहैं । बहुतक जानु पखेरु उडइहैं ॥
बहुतक चाल चलै महँ जइहैं । बहुतक मरि मरि पावँ उठइहैं ॥
बहुतक जानु पखेरु उडइहैं । पवन कै नाईं तेहि महँ जइहैं ॥
बहुतक जानौं रेंगहिं चाँटी । बहुतक बहैं दाँत धरि माटी ॥
बहुतक नरक-कुंड महँ गिरहीं । बहुतक रकत पीब महँ परहीं ॥
जेहि के जाँघ भरोस न होई । सो पंथी निभरोसी रोई ॥

परै तरास सो नाँघत, कोइ रे वार, कोइ पार ।
कोइ तिर रहा`मुहम्मद', कोइ बूडा मझ-धार ॥28॥

लौटि हँकारब वह तब भानू । तपै कहैं होइहि फरमानू ॥
पूछब कटक जेता है आवा । को सेवक, को बैठे खावा ?॥
जेहि जस आउ जियन मैं दीन्हा । तेहि तस चाहौं लीन्हा ॥
अब लगि राज देस कर भूजा । अब दिन आइ लेखा कर पूजा ॥
छः मास कर दिन करौं आजू । आउ क लेउँ औ देखौं साजू ॥
से चौराहै बैठे आव । एक एक जन कँ पूछि पकरावै ॥
नीर खीर हुँत काढब छानी । करब निनार दूध और पानी ॥

धरम पाप फरियाउब, गुन औगुन सब दोख ।
दुखी न होहु `मुहम्मद', जोखि लेब धरि जोख ॥29॥

पुनि कस होइहि दिवस छ मासू । सूरुज आइ तपहिं होइ पासू ॥
कै सउँहैं नियरे रथ हाँकै । तेहिकै आँच गूद सिर पाकै ॥
बजरागिनि अस लागै तैसे । बिलखैं लोग पियासन बैसे ॥
उनै अगिन अस बरसै घामू । भूँज देह, जरि जावै चामू ॥
जेइ किछु धरम कीन्ह जग माँहा । तेहि सिर पर किछु आवै छाहाँ ॥
धरिमिहि आनि पियाउब पानी । पापी बपुरहि छाहँ न पानी ॥
जो राजता सो काज न आवै । इहाँ क दीन्ह उहाँ सो पावै ॥

जो लखपती कहावै, लहैन कोडी आधि ।
चौदह धजा `मुहम्मद', ठाढ करहिं सब बाँधि ॥30॥


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