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आखिरी कविता के लिए / ओम पुरोहित ‘कागद’

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कविता को
निरी कविता मत समझो
कविता तुम्हें
आगे की पंक्ति में
बैठने का हक दिलाएगी
तुम्हें
आदमी होने का पूरा
अधिकार दिलाएगी
सच पूछो तो
कविता तुम्हें तुम्हारे होने का
एहसास कराएगी ।

जिस दिन
हलक के दरवाजे तोड़
फुटपाथ पर आएगी
उस दिन
हर तरफ
गंगा सा पावन
सागर हिलोरें लेगा
पूर्व से निकल
पश्चिम में नहीं जाएगा
उस दिन सूरज ।

उस दिन
हर झौंपड़ी पर झांकेगा
और
अपने निकट की
उन तमाम ऊँचाइयों को
जो शोषण की नींव पर खड़ी हैं
अपने आक्रोश का लांपा लगा
झुलसा देगा सूरज ।

उस दिन
हमारे ऊपर होगा सूरज
कविता का हाथ बंटाने
और कविता
अपने समय की गवाही देने
हर चौराहे पर खड़ी मिलेगी
एकदम मुस्तैद।

मेरे दोस्तो !
कविता को
अपनी प्रेमिका के प्रेम की
पगार मत समझो
जो
आंख मिलाने पर देना चाहो ।

कविता
एक दिन
तुम से
तुम्हारी उम्र का
हिसाब मांगेगी
मांगेगी एक-एक वर्ण
जो तुम्हे गढ़ना था
तुम्हारी सदी की
आखिरी कविता के लिए ।

सच बताऊँ
उस दिन
तुम्हारी आंखें
धरती में बहुत गहरे
गड़ जाएंगी
और
तुम्हारे भीतर का आदमी
मर जाएगा
फिर
तुम खुद
तुम्हारे ‘तुम’ पर थूकोगे ।

इस बात को
शायद
तुम न जानो
कि,खुद के भीतर का थूक
खुद के बाहर को
निरुत्तर करने में
कितना सक्षम है ।

खुद को
निरुत्तर होने से बचाओ
क्योंकि
निरुत्तर होना
मृत्यु से कम नहीं है
मुखरित कर दे पत्थर को
कविता के अतिरिक्त
किसी में ऐसा दम नहीं हैं ।