भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आग / जावेद आलम ख़ान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारी आंखों में चुभती थी
हमारे घर की रोशनी
इसलिए जब भी हमने दीपक जलाया
तुमने फूंक मारकर बुझा दिया
और हमने अंधेरे को अपनी नियति मान लिया

हमे भूख लगी
पेट की आग बुझाने के लिए
चूल्हे में आग जलाई
तुमने फिर से फूंक लगाई
अंगारों ने लाल आँख दिखाई
चूल्हे के मुंह से बाहर निकलती लपट
तुम्हारे अहम पर चोट थी
इसे खामोश करने के लिए
तुमने आंधी चलाई
फिर वही हुआ जो सदियों से होता आया है
आग और हवा की जुगलबंदी
हमारी झोपडी पर नाचती हुई
अब तुम्हारे महल तक पहुँच चुकी है

अब चूल्हा है न झोपडी
न तुम्हारे आलीशान मकान
बस हम हैं तुम हो
और हमारे तुम्हारे बीच पसरी हुई
वही पीली आग