आग और दमकल / दिनेश्वर प्रसाद
यह मुहल्ला बसा है पहाड़ पर ।
यहाँ भूकम्प नहीं होगा। बाढ़ नहीं आएगी ।
हाँ, आसपास जँगलों में आग लग सकती है ।
अभी ही तो निर्मेघ नीलिमा में कुछ लपटें दीखी थीं ।
देखा जाएगा ।
सबसे ऊपर
सेठ जग्गू का गुड़िया घर
खिड़की-आँखों के सतरँगे ऐनकों से
आक्षितिज हरियाली देखता है ।
ख़ूनी नाख़ूनी-हाथ मिसें
आजानु जटाजूट योगी यहाँ आते हैं ।
भोर से हरिकीर्तन, साँझ से युगलगान ।
दिन में प्रसाद भोग, रात में दिव्यपान ।
बाद में नेताजी का घर
धुली हुई खादी-सा ।
नाम — ‘अहिंसा भवन ।‘
द्वार पर — ‘कुत्ते से सावधान ।‘
प्राणायाम, अमृतान्न, दुग्धपान ।
ग्लोब सामने रख कर
चिन्ता व्यक्त की जाती —
कल तक यह दुनिया चलेगी तो ?
गोलमेज़ी मुक्कोभरी आवाज़ें
छत हिला कहती हैं —
आप हैं, चलेगी; बल से चलाई जाएगी।
नीचे अफ़सर का हर दिन
ऊपर उठता मकान ।
जीपें सीमेण्ट ढोती, वर्दियाँ ईटें जोड़ती हैं ।
शाम में टाई सहलाकर
सिगरेट का धुआँ
‘ओ०के०’ कह जाता है ।
सबसे नीचे अनाम लोगों के बौने घर
धरती में धँसे हुए, किन्तु सर उठाते-से ।
नालों की गन्ध, ढेर कूड़ों के ।
ठेलों और रिक्शों की लम्बी कतार ।
पेट के आँवे में यहाँ पकता है
हर रोज़ चेहरा ।
गँजे शब्द अक्सर हवा में उमड़ आते हैं ।
असूर्या लोकः लेसर की खोज हो चुकी है ।
अभी-अभी
निर्मेघ नीलिमा में लपटें धुआँई हैं !
चर्चा है —
नीचे के किसी घर से जंगल में आग गई ।
आग अगर ऊपर तक आएगी
सेठ को, नेता को, अफ़सर को भरोसा है
सरकारी दमकलों से तुरन्त बुझा जाएगी ।