भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आगली सोची न पाछली / कन्हैया लाल सेठिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आगली सोची न पाछली
चाणचक ही समदर रै-
सोड़ियै स्यूँ उठ’ र
एक अधगैली पाँगळी बादळी,
पकड’र रूत री चिटली आँगळी,
चढ़गी सूरज रै घर री डागळी,
लागी असाढ़ री करड़ी तावड़ी
पडगी साँवळी, दाजगी चामड़ी,
डरती गुड’र भौम कानी बावड़ी,
पकड बाँवळियो पून दकाली-
फिट माजनूँ, अठीनै बळ आगड़ी,
पछै पिसताई ही घणी बापड़ी,
रो रो’ र भर दिया बीजळी-
बोली, ईयाँ करयाँ काँई हुसी बावळी
अब तो ‘म’ न मिटा’ र का लै
थारी काया नै ऊजळी,
आभै जिसी हू’र
आभै में ही जा मिली !