आचरण : पांच कविताएं / शहंशाह आलम
एक
इतना शिष्ट था वह इतना विनम्र इतना हंसोड़
इतना आचारवान अद्वितीय रोग-मुक्त कि
वह रखता था सदी के महत्त्वपूर्ण
कवियों कथाकारों आलोचकों संपादकों को
अपनी जेबी में हर क्षण हर सुबह दोपहर शाम कि
वह केवल बकता था गालियां
अपने ही मित्रों समकालीनों अग्रजों को
गाली देने की सारी विशिष्ट कलाओं के साथ
आत्मा तो थी उसकी डरी और मरी हुई बिलकुल
समृद्ध करता था वह ऐसे ही स्वयं को
संतापित करता था वह ऐसे ही
अपनी आलोचना की भाषा को
अपनी वाणी का रस बांटता था वह सबको ऐसे ही
अद्वितीय था वह जन्म से कमोबेश
पुनर्जन्म में भी होगा अद्वितीय अद्भुत
कर जाता वह अनजाने ही अक्सर
अनजाने ही इस सत्य को दृश्यमान
दो
सभा रोज़ होती थी इस महानगर में
मंच रोज़ सजते थे अर्थों और विचारों से भरे हुए
यहां और वहां इधर और उधर
उपस्थित रहता वह सदेह हर सभा हर मंच की अगली पंक्ति में
साहित्य-इतिहास की सबसे भ्रष्ट समझ के साथ
सभा और गोष्ठी के आयोजनकर्ता-कार्यकर्ता
नहीं जानते न ही समझ पाते
उसके सभ्य इस तंत्र को
उसके सभ्य इस बीज को
उसके सभ्य इस गुण को
उसके सभ्य इस दृश्य-अदृश्य को कि
उसका अनोखा यह रूप कि
उसका अनोखा यह शब्द-प्रेम
कला और साहित्य की शिष्टता-विशिष्टता में नहीं
बल्कि उन रुपयों के कौतूहल में था
जो वह वसूल करेगा समारोह की रपट छपवाने के एवज़
ठगी के सारे ख़ूनी खेल खेलता हुआ
तीन
उसे रामचंद्र शुक्ल अथवा नामवर सिंह के नहीं
लालकृष्ण आडवाणी अथवा नरेंद्र मोदी के विचार अच्छे लगते
उसे पाब्लो नेरूदा अथवा केदारनाथ सिंह की नहीं
अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं
अपने पूर्वजों के शब्द अर्थ और मधुर कंठ लगतीं
उसे नदी समुद्र वन-प्रांतर जलवनस्पतियां सपने दोपहर
मक़बूल फ़िदा हुसेन के चित्र इंद्रध्नुष के रंग छाता गमछा घास
छपाक्-छपाक् तैरते हुए लड़के कुहुक-कुहुक के स्वर नहीं
प्रेमिका की निश्चलता-व्याकुलता भी नहीं
न दुर्लभ दिवस कोई न कथाचित्र कोई
बल्कि उस युवा पत्रकार की हताशा-निराशा पसंद थी
जो चूक गया था रह गया था नाकाम इस मगध में
मिल गई थी सफलता उसी को प्रपंच से
किसी साधु प्रवृत्ति वाले सत्ताधीश के हाथों
संभवतः सबसे सफल सबसे रचनात्मक था वह इसलिए
संभवतः अपनी सफलता के इसी दंभ में इसी विस्फोट में
सीमाहीन हो-होकर सिर उठाता वह बार-बार
अपने सांस्कृतिक होने की नित्य नई शैली विकसित करता
तन्मय-तन्मय एकदम तन्मय होकर
चार
हा हा हा वह हंसता बारिश के दिनों पर फूलों पत्तियों पर
हा हा हा वह हंसता मज़दूर पिता पर किसान पर
हा हा हा वह हंसता समुद्र पर उसमें बनते हुए नमक पर
हा हा हा वह हंसता आकाश पर पृथ्वी पर समय पर
हा हा हा वह हंसता भित्ति-चित्र पांडुलिपियों पर
हा हा हा वह हंसता हमारी विधियों पर
हा हा हा वह हंसता हमारे निवेदन हमारे जीवन की आत्मकथा पर
हा हा हा वह हंसता जन्म पर मृत्यु पर तुम्हारे-हमारे विश्वास पर
हा हा हा वह हंसता व्यतीत वर्तमान पर
हा हा हा वह हंसता उन पर आनंदित
जिन्होंने उसे आशीष दिया प्रार्थना के शब्द दिए
हा हा हा वह हंसता उन पर विचित्र स्वरों में
जिन्होंने उसे धरती पर नर्म बिस्तर दिए
हा हा हा वह हंसता उन पर अनायास-अजीवंत
जिन्होंने उसे महत्वाकांक्षाएं दीं अर्थ दिए क्रियाएं दीं
हा हा हा वह हंसता हरे हो रहे दरख़्तों पर
हा हा हा वह हंसता जीवित हो उठीं नदियों पर
हा हा हा वह हंसता क्षितिज पर हमारे सपनों पर
हा हा हा वह हंसता शून्य पर सूक्ष्म पर मूल्य पर
हा हा हा वह हंसता भाषा के भेद-अभेद पर
हा हा हा वह हंसता काव्यप्रक्रिया पर हर बार
हा हा हा वह हंसता मुझ पर मुझ पर मुझ पर कि
मैं उसी की मानिंद क्यों नहीं सोचता
क्यों नहीं रहता उसी के नियंत्रण-अनुशासन में
क्यों नहीं हो जाता उसकी जड़ वृत्ति उसकी हिंसा में शामिल
हा हा हा वह हंसता सिर्फ़ एकरस
हा हा हा वह हंसता ही जाता सिर्फ़ उत्पीड़ित
उड़ती हुई पतंग पर खेल के मैदान पर मछुआरों पर पुरखों पर
आकाश में बढ़ रहे तारों पर उड़ रहे अंतरिक्षयान पर
बेआवाज़ प्रेम पर मौन पर सहज स्मृतियों पर
पांच
एक स्त्री को वह बुलाता नदी के किनारे
एक को मंदिर के एकांत में टापू के सन्नाटे में
दूसरी-तीसरी को किसी गार्डेन किसी होटल किसी घर में
चैथी को किसी भव्य सभा-स्थल पर
पांचवी को पत्नी-सा ऐश्वर्य देने के नाम पर
छठी को किसी बलात्कार-गृह में अकेले
वह स्थापित-शापित था सदैव ऐसे ही कार्यों के लिए
संभवतः यही था उसका स्वप्न यही था उसका यथार्थ
यही था उसका विचार संपूर्ण यही था उसका व्यापार
सावधान! सावधान!! बस यही है उसकी दिनचर्या
यही है उसका ध्येय यही है उसका इहलोक और परलोक
बस यही है उसके जीवन का काला और सफेद
बस इतना ही है उसका प्रतिक्षण ज़िंदगी का कारोबार।