आज का रैदास / जयप्रकाश कर्दम
शहर में कॉलोनी
कॉलोनी में पार्क
पार्क के कोने पर
सड़क के किनारे
जूती गाँठता रैदास
पास में बैठा उसका
आठ बरस का बेटा पूसन
फटे-पुराने कपड़ों में लिपटा
अपने कुल का भूषण
चाहता है वह ख़ूब पढ़ना और
पढ़-लिखकर आगे बढ़ना
लेकिन लील रही है उसे
दारिद्रय और दीनता
घर करती जा रही है
उसके अन्दर हीनता
यूँ उसका नाम
सरकारी स्कूल में दर्ज है
लेकिन ग़रीब रैदास के लिए
वहाँ का भी बड़ा ख़र्च है, इसलिए
कभी किताब, कभी कॉपी और
कभी कपड़ों के अभाव में
नहीं जा पाता है पूसन प्रायः स्कूल
और आ बैठता है अपने पिता के पास
टाट की छाँव में
वहीँ पर आकर रुकती हैं
कई पब्लिक स्कूलों की बसें, और
उनमें से उतरते हैं
रंग-बिरंगी पोशाकों में सजे-धजे
कन्धों पर बैग और
हाथों में 'वाटर बॉटल' लटकाए
कॉलोनी के सम्भ्रान्त लोगों के बच्चे
जीवन की सच्चाइयों से अनभिज्ञ पूसन
मायूसी और दीनता से
अँग्रेज़ी में गिटर-पिटर करते
इन बच्चों को देखता है
और अपने बाप से पूछता है—
पिताजी! क्यों नहीं बनाते तुम भी
मेरे लिए... इनके जैसे कपड़े
क्यों नहीं भेजते मुझे भी
इन ही जैसे स्कूल?
सुनकर चुप रह जाता है रैदास
लेकिन हिल जाती है उसके मस्तिष्क की चूल,
छलनी कर देते हैं कलेजे को—
लाचारी और बेबसी के शूल।
उसकी आँखों में
भर आता है पानी, और
चुप्पी कहती है—
अभाव और उत्पीड़न की कहानी!
उसके अन्तर में उठती है
एक टीस, और
विकल कर देती है वेदना
और विक्षिप्त होने लगती है
उसकी सारी चेतना
किंकर्तव्यविमूढ़-सा वह
कभी हँसते-खिलखिलाते और
क़ीमती कपड़ों में चमचमाते
इन सामन्ती बच्चों को
और कभी अपने पास बैठे
चमड़े के टुकड़े
पॉलिश की डिबिया और
ब्रुशों को
उलटते-पलटते अपने
नंगे-अधनंगे बेटे को देखता है
विवशता से व्याकुल हो
अपने मन को मसोसता है
अपनी भूख और बेबसी को
कोसता है, और
ईर्ष्या, ग्लानि और क्षोभ से भरकर
व्यस्था के जूते में
आक्रोश की कील
ठोक देता है!