भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज फिर चाँद की पेशानी से / गुलज़ार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज फिर चाँद की पेशानी से उठता है धुआँ
आज फिर महकी हुई रात में जलना होगा
आज फिर सीने में उलझी हुई वज़नी साँसें
फट के बस टूट ही जाएँगी, बिखर जाएँगी
आज फिर जागते गुज़रेगी तेरे ख्वाब में रात
आज फिर चाँद की पेशानी से उठता धुआँ