भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज मनुजता घायल हे / राम सिंहासन सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चारों ओर हे घोर निरासा, अंधकार छायल हे।
रंगभेद पाखंड पाप से आज मनुजता घायल हे।।

़यहाँ के धरती सोना उगले, उगले हीरा-मोती,
पर धरती के बेटवन के हे जुरे न फटल धोती।
चिल्लवा-कौवा उपरे-उपरे छीन रहल हे रोटी,
गिद्धवा झपट-झपट के नीचे दान-दुखी के बोटी।
घुसखोरी नाच रहल हे पहन के पग पायल हे।
चारो ओर हे घोर-निरासा अंधकार छायल हे।।

ऐसन सूरज चमकल उपर झूलसल जनता आम,
दाग लगल ऊ चाँद देख के रहगेली हैरान।
डूबल सवारथ के कुईयाँ में जनता के भगवान,
मोटकन चुहवन कुतर-कुतर के ढो रहलन गोदाम।
घड़ियाल आऊ सोंस तोंद भर-भर के अगरायल हे।
चारों ओर हे घोर निरसा, अंधकार छायल हे।।

बिसधर हे डस रहल लोग ऐसे रहलन हे काँ,
ताल-तलैया कुआँ-बावड़ी से निकल हे भाप।
मारन उच्चाटन के मंतर बेरथ होयल जाप,
भगदड़ मचल हाय तौबा के फैल रहल हे ताप।
सता रहल सीता के रावन राघव सकुचायल हे।
चारों ओर हे घोर निरसा, अंधकार छायल हे।।

गोबरधन पर बैठ बजावे किसन चैन के बंसी,
नीचे दबल कराह रहल हे गोकुल के यदुवंसी।
उजड़ गेल आज वृन्दावन जमुना काली नाग,
मारऽ हे फुफकार गाय-बछड़ा के फूटल भाग।
त्राहि-त्राहि हे मचल हाय ई घोर कलि आयल हे।
चारों ओर हे घोर निरसा, अंधकार छायल हे।।

हंस के डंअरा लगल चुगऽ हे मोती कौवा काना,
कोयल के ऊ फोड़ नरेटी छेड़े खूब तराना।
घोड़वन पर हे चढ़ल गदहवन मार रहल हे ताना,
जंगल में फूँके सियार अब पहन सेर के वाना।।
ई अंधेर नगरी में सूरज जोत बहुत भरमायल हे
चारों ओर हे घोर निरसा, अंधकार छायल हे।।