आज सुबह के अख़बार में / केदारनाथ सिंह
आज सुबह के अख़बार में
एक छोटी-सी ख़बर थी
कि पिछली रात शहर में
आया था बाघ !
किसी ने उसे देखा नहीं
अँधेरे में सुनी नहीं किसी ने
उसके चलने की आवाज़
गिरी नहीं थी किसी भी सड़क पर
ख़ून की छोटी-सी एक बूँद भी
पर सबको विश्वास है
कि सुबह के अख़बार मनें छपी हुई ख़बर
ग़लत नहीं हो सकती
कि ज़रूर-ज़रूर पिछली रात शहर में
आया था बाघ
सचाई यह है कि हम शक नहीं कर सकते
बाघ के आने पर
मौसम जैसा है
और हवा जैसी बह रही है
उसमें कभी भी और कहीं भी
आ सकता है बाघ
पर सवल यह है
कि आख़िर इतने दिनों बाद
इस इतने बड़े शहर में
क्यों आया था बाघ ?
क्या वह भूखा था ?
बीमार था ?
क्या शहर के बारे में
बदल गए हैं उसके विचार ?
यह कितना अजीब है
कि वह आया
उसने पूरे शहर को
एक गहरे तिरस्कार
और घृणा से देखा
और जो चीज़ जहाँ थी
उसे वहीं छोड़कर
चुप और विरक्त
चला गया बहार !
सुबह की धूप में
अपनी-अपनी चौखट पर
सब चुप हैं
पर मैं सुन रहा हूँ
कि सब बोल रहे हैं
पैरों से पूछ रहे हैं जूते
गरदन से पूछ रहे हैं बाल
नखों से पूछ रहे हैं कंधे
बदन से पूछ रही है खाल
कि कब आएगा
फिर कब आएगा बाघ ?