भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आज होली रे / सुनीता शानू
Kavita Kosh से
ओढ़ चुनर सतरंगी
जो बदला रंग धरती का
नीला हठीला आसमां भी
हो गया रंगीन
कि आज होली रे...
चाँदी से उजले मतवाले बादल
ज्यों बिनौलों संग गुँथे
चमकीले रूई के फूल
निकल भागी हो जैसे
उजली कपास फूलों से
कि आज होली रे...
दूर कहीं कलरव करती
चली परिन्दों की बरात
कहीं बजी बाँस में शहनाई
और महकती बह चली
रंगीन पुरवाई
कि आज होली रे...
और कहीं छाई है लाली
पनघट पे चलती कोई
गोरी का जैसे सिन्दूरी रूप
कहीं सरसों के बागानों में
चिलचिलाती धूप
कि आज होली रे...
पूरब ने पश्चिम में
फेंका हो जैसे
एक दहकता लाल गुब्बारा
ढलते-ढलते रंग लाया
ढलता सूरज मुस्काया
हर पल जीवन हो सतरंगी
कि आज होली रे...