भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आजकल / नरेश मेहन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझे नहीं मालूम
मैं क्यों उदास जो जाता हूँ
किसी के साथ हाथ मिलाते हुए
किसी के साथ हंसते हुए।
क्यों नहीं मिलता मुझे
कोई निस्वार्थ हाथ
जिसे मैं हाथ मे लेकर
अपने दुःख को बांट सकूं
क्यों नहीं मिलता
वह चेहरा
जिसके हंसने से
मैं खूलकर हंस सकूं।
आजकल
सारा समाज
क्यों नकली हो रहा है
लोग क्यों नकली हाथ
व चेहरे रखते है?
हंसते क्यों नहीं खुलकर
और क्यों नहीं हंसने देते?
अगर यही
नकली दौर चलता रहा
तो हंसने-हंसाने
मिलने-मिलाने का उपक्रम
नेस्तनाबूद हो जाएगा
और असली सब कुछ
नकली हो जाएगा
लोकतंत्र की तरह।