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आजादी का त्योहार / महेन्द्र भटनागर

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[3] आज़ादी का त्योहार


लज्जा ढकने को

मेरी खरगोश सरीखी भोली पत्नी के पास

नहीं हैं वस्त्र,

कि जिसका रोना सुनता हूँ सर्वत्र !

घर में, बाहर,

सोते-जगते

मेरी आँखों के आगे

फिर-फिर जाते हैं

वे दो गंगाजल जैसे निर्मल आँसू

जो उस दिन तुमने

मैले आँचल से पोंछ लिए थे !


मेरे दोनों छोटे

मूक खिलौनों-से दुर्र्बल बच्चे

जिनके तन पर गोश्त नहीं है,

जिनके मुख पर रक्त नहीं है,

अभी-अभी लड़कर सोये हैं,

रोटी के टुकड़े पर,

यदि विश्वास नहीं हो तो

अब भी

तुम उनकी लम्बी सिसकी सुन सकते हो

जो वे सोते में

रह-रह कर भर लेते हैं !


जिनको वर्षा की ठंडी रातों में

मैं उर से चिपका लेता हूँ,

तूफ़ानों के अंधड़ में

बाहों में दुबका लेता हूँ !

क्योंकि, नये युग के सपनों की ये तस्वीरें हैं !

बंजर धरती पर

अंकुर उगते धीरे-धीरे हैं !


इनकी रक्षा को

आज़ादी का त्योहार मनाता हूँ !

अपने गिरते घर के टूटे छज्जे पर

कर्ज़ा लेकर

आज़ादी के दीप जलाता हूँ !

अपने सूखे अधरों से

आज़ादी के गाने गाता हूँ !


क्योंकि, मुझे आज़ादी बेहद प्यारी है !

मैंने अपने हाथों से

इसकी सींची फुलवारी है !

पर, सावधान ! लोभी गिध्दों !

यदि तुमने इसके फल-फूलों पर

अपनी दृष्टि गड़ाई,

तो फिर

करनी होगी आज़ादी की

फिर से और लड़ाई !

1951

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