भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आजादी के नाम एक पाती / उज्जवला ज्योति तिग्गा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं
हवा हूं
धूप हूं
पानी हूं
....
गुदगुदाती हूं हवा बन
अपनी उंगलियों से
किसी बच्चे का
कोमल सा गाल
....
छू लेती हूं फिर धूप बन
अंधेरों से घिरे
हर अनाम चेहरों को
....
टपक पड़ती हूं बूंदे बन
फूलों पर, पत्तियों पर
नन्हीं कोंपलों, अंकुरों पर
....
चाहती हूं
....
श्वास बनू मैं
रक्त बन बहूं शिराओं में
मुस्कान सी बिखर बिखर जाऊं
....
मैं
हवा
धूप
पानी
....
मत रोको मुझे
मैं रूकना नहीं चाहती
मत बांटो मुझे
मै बंटना भी नहीं चाहती
मत बांधो मुझे
मैं बंधना भी नहीं चाहती
....
मैं
हवा
धूप
पानी
....
मेरा न रंग कोई
न कोई रूप मेरा
न कोई भाषा मेरी
न कोई धर्म मेरा
....
मैं
हवा
धूप
पानी
....
फिर क्यों बांध लेना चाहते हो
मुझे क्यों तुल जाते हो बांटने को
क्यों उठा देते हो हर जगह पर दीवारें
क्यों बढ़कर बीच रास्ते में रोक लेते हो
....
मैं
हवा
धूप
पानी
....
मैं स्वछंद निर्द्वन्द
मैं निर्मल उजली
मैं निर्भय शुचि
....
मैं
हवा
धूप
पानी
....
परिचित, अपरिचित
देश, विदेश
हर सीमा के परे
हर बंधन को तोड़
बहती हूं / चलती हूं
....
मैं
हवा
धूप
पानी
....
मत रोको मुझे
मत बांधो मुझे
मत बांटो मुझे