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आजी की मृत्यु / दिलीप चित्रे

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मेरी आजी मर गई, एक नाटी दुबली औरत
इक्यासी वर्षों की
अब पलंग पर पड़ी है
गर्मियाँ है। उसके सिर के इर्द-गिर्द मक्खियाँ मण्डरा रही हैं।
मेरी आजी इतनी मनुष्य लग रही है कि डर लगता है
सूतक मनाने वाले अमानुषों की भीड़ में
जो भावुकता फैलाते हैं
अविश्वसनीय, अफ़वाहों-सी
मैं देखता हूँ उसके चेहरे की ओर । उसका मुँह
थोड़ा- सा खुला है अपने टूटे दाँत दिखला रही है वह
उसकी आँखे खुलने को ही थीं, मैं देखता हूँ
बाहर हवा पर धूप में से
एक चिड़िया उड़ जाती है । भुलक्कड़
एक बूढ़ी और निश्चल औरत देखकर
मेरा दम घुटता है मुझे शह लगती है
वह प्राचीन है और निर्माल्यवत् बनी जा रही है
कुछ ही देर में उसे सुला देंगे चिता पर
कुछ ही देर में हम लकड़ियाँ सुलगा देंगे
गर्मियाँ हैं । वह भर्र से जल जाएगी
परत-दर-परत नहीं सी हो जाएगी मेरी आजी
लकड़ी के पटिये पर से वह उड़ेगी आग में
वह गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध ऊपर-ऊपर जाएगी गोता लगाकर
वह नियमानुसार गहरे डूबती जाएगी
आजी ने छोड़ दिया है घर
अब वह हो गयी सभी चीजों की समकालीन ।
चिड़िया जैसी भुलक्कड़ बनेगी ।
मक्खी भिनभिनाती रहेगी उस तकिये के इर्दगिर्द
जहाँ टिकाया था उसने अपना सिर ।
मेरी आजी जो मरी है ।
क्या यही है आजी? टूटे दाँतों का सूर्यास्त
और झुर्रीदार हवा
और मैं ठसाठस बैठा हुआ बेढब आरामकुर्सी पर ।