आठमसर्ग / अम्ब-चरित / सीताराम झा
(रोला)
1.
गौतम मुनि सौं विदा माङि कय विधियुत वन्दन
चलला कौसिक मुनिक संग सानुज रघुनन्दन।
सूर मन्दगति सबुध मार्ग मंगलमय कयने
गुरु-कवि-अनुगत विपुलबिम्ब चन्द्रक छवि धयने॥
2.
पथक दुहूदिस बसल नगर वर भल छवि गामक
आसन-वासन-असन-सजल घर जनविश्रामक।
लागल बाग ललाम कदलि कटहर ओ आमक
निरखि जुड़ायल नयन सहित-मुनि लछुमन रामक॥
3.
कतहु सुवर्णक सैध कतहु पाथर ओ ईंटक
शोभित विविध गवाक्ष आवरण मखमल छीटक।
चनवा तोरन झार फुनुस सौं लसित ओसारा
छत्रिय वैश्य क टील विशद चौपाड़ि अखाड़ा॥
4.
नव तृण छारल चार विप्रभवनक शुभ पाँती
बाँसक झाँझन सजल सघन वतरख ओ बाती।
अनुपम टाटक ठाठ निकट बाटक अति सुन्दर
कहल अनुज कैं निरखि हरखि हरि पुरुषपुरन्दर॥
5.
“लछुमन! मिथिलासुयश लोक जे छल बतिआइत
अतिशयोक्ति से जानि छलहुँ हम नहिं पतिआइत।
किन्तु बुझै छी आब आबि अहि देशक लग में
वरनि सकैछ अशेष रूप गुन के कवि जग में॥
6.
देखू घर चौचार चारु कौंचनि छवि कतरल
सकल गृहस्थक एतै काज सबबिधि अछि सतरल।
मंच-मंच पर कुम्हर कदीमा सजमनि लतरल
वाड़ी-बाड़ी विविध साग सोआ अछि चतरल॥
7.
ललित लती सब लतरि फुलाय फरै अछि तहिना
दिन दिन जन धन बढ़य पुण्यवान क घर जहिना।
सबहिक भवन समीप लसित सुन्दर फुलवारी
खेत खेत में बनल देखु पुनि पृथक कियारी॥
8.
आलू ओल खम्हारु आरु अरिकोंचक धारी
कोबी भाँटा मूर आद आदि क तरकारी।
सकल कला में कुशल परम शिक्षित नरनारी
विविध अन्न सौं भरल सुशोभित विविध वखारी॥
9.
पूरित निर्मलनीर निकट में सभक कूप अछि
घर-घर व्यंजन विविध दूध घृत भात सूप अछि।
चिंकन चूड़ा दही सर्कश सुलभ पूप अछि
विषयभोग में एतय एकसम रंग भूप अछि॥
10.
तुलसी तरु तर सतत प्रज्जवलित दीप धूप अछि
तजि दादुर दुरबोल अपन भय गेल चूप अछि।
जहि दिसि देखी ततहि वस्तु सबटा अनूप अछि
शरद ऋतु क अहिठाम देखु प्रत्यक्ष रूप अछि॥
11.
अपन अपन कर्तव्य पथिक जन पालय जाइछ
देखू द्विज बटु पढ़क हेतु विद्यालय जाइछ।
कलित ललित-करकलम काँखतर पोथी राजित
कटि मौंजी कौपीन भाल भस्मक छवि भ्राजित॥
12.
द्विजक माँथपर स्वच्छ पाग पेंचक छवि छाजय
जनु शिवमस्तक श्वेत जटापर चन्द्र विराजय।
पहिरन मिरजइ स्वच्छ सरल साँची छवि धोतिक
टपकि रहल अछि सकलसभ्यता लक्षण सोति क॥
13.
ककरो धोती लाल भाल में सबहिक चानन
अति प्रसन्न मन मनुज सकल अछि सस्मित आनन।
शोभा लज्जा दया शील श्रद्धा ओ क्षमता
सब वनिता में अछि समान नहिं कतहु विषमता॥
14.
कतहु काज वश क्यौ कदापि बाहर जे आबय
पथ निरखैत रखैछ पयर नहिं नयन उठाबय।
गति हंसीक समान सभक मृदु मधुर सुवानी
सम-सतित्व सौं भरलि एतय दासी ओ रानी”॥
15.
सुनि मुनि बजला “रम! देशछवि मन भरि देखू
पथक परिश्रम अपन आइ फल पूरित लेखू।
अन्न मूल फल फूल कन्द अति एतय शस्त अछि
खग मृग कीट पतंग, मनुज सब मुदित मस्त अछि॥
16.
नहि क्यौ भूखल दुखी दीन नहिं रोगग्रस्त अछि
नहिं चुगिला नहिं चोर कतहु नहिं जन्तु त्रस्त अछि।
सब निजनिज कर्तव्यकरन में सिद्धहस्त अछि
मिथिला देशक सकल चराचर अति प्रशस्त अछि”॥
17.
सुनि पुनि मुनि सौं पुछल राम मृदु वचन विचक्षण
“गुरुवर! बुझाय प्रशस्त पदार्थक लक्षण।
जानि जनक जनपदक कथा सब मदक विलक्षण
राखब तहि दिस ध्यान हमहु सब अपन सदक्षण”॥
18.
कहलनि मुनि “सुनु वत्स! यद्यपि संसारक
थिक प्रशस्त से तकर जकर जे हो हितकारक।
किन्तु सकल जन जकर हृदयसौं यश गुन गाबय
से प्रसस्त जगमध्य राम! चर अचर कहाबय॥
19.
जतय भूप ओ प्रजा परस्पर प्रेमसहित हो
सब उद्यमरत लोक योग ओ छेम सहित हो।
कृषि वाणिज्य सुचारु तत्त्वगुणखोज सदच्छन
निश्छल सब व्यवहार प्रतिष्ठित देश क लच्छन॥
20.
ब्राह्मण छत्रिय वैश्य शूद्र जन वास जतय हो
अपन अपन कर्तव्य करक उल्लास जतय हो।
निकट नदी सद्वैद्य परस्पर अचल प्रेम हो
जानु प्रतिष्ठित गाम ततहि नित कुशल छेम हो॥
21.
मुख्य क कर सब जूति छूति नहिं जतय छलक हो
गुरुलघु जनक विचार परस्पर प्रीति झलक हो।
अतिथि जनक सत्कार उचित कुलरीति क रक्षण
जानू एते गुनसहित प्रतिष्ठित भवन क लक्षण॥
22.
वसन-अन्न फल फूल आदि सब वस्तु जतय हो
एक मोल प्रिय बोल सहित पुनि क्रय-विक्रय हो।
सौदा नगद-उधार-पैंच विधि सौं नित भेटय
जानु प्रशस्त बाजार सभक जहि सौं दुख मेटय॥
23.
शिक्षक गण निजशास्त्र दक्ष पुनि क्रिया विचक्षण
निश्छल शिक्षा देथि देखि शुभ शिष्यक लक्षण।
छात्रवर्ग पुनि जतय नियम समुचित सब पालय
करय योग्यता लाभ प्रतिष्ठित से विद्यालय॥
24.
नियमित हो सब काज जतय मन्त्री अनलस हो
शिक्षित सकल सदस्य लोकविख्यात-सुयश हो।
अनुचित-उचित विवेक दक्ष अध्यक्ष वृद्ध हो
सभा प्रशंसित जानु ततहि सब कार्य सिद्ध हो॥
25.
नहि तट थूक खखार गन्ध नहिं मूत्र मल क हो
बाहर सौं आयात तथा निर्यात जलक हो।
स्नान पान सौं जतय सकल जन हो मुदनिष्ठित
नारिघाट हो पृथक जलाशय जानु प्रतिष्ठित॥
26.
क्यौला कमल गुलाब मालती सिङरहार हो
केरा नेबो नारिकेल औरा अनार हो।
बहुविध आम लताम जामु कटहर तरु-निष्ठित
कोकिल कलरव सहित जानु आराम प्रतिष्ठित॥
27.
जननि-जनक गुरु भक्ति शक्ति पुनि पर उपकारक
धृति मति विनय विवेक कुशलता सकल प्रकारक।
देखि दीनदुख दया प्रेम परजन पर जनिका
जानु प्रतिष्ठित पुरुष जगत हितकारक तनिका॥
28.
मुख छवि चान समान कमलसम अमल अंग हो
कोकिलसम प्रिय बोल घरक कृति करक ढंग हो।
लाज धाख शुभ शील दयामय हृदय जनिक हो
जानु प्रशंसित नारि सकल सुख हाथ तनिक हो॥
29.
तनय स्वभाव परेखि सतत सत पन्थ चढ़ाबथि
शास्त्रक शस्त्रक कृषिक यथारुचि पाठ पढ़ाबथि।
बाल वयस वस राखि अनन्तर अति मुद-निष्ठित
सुत कैं सब अधिकार देथि से पिता प्रतिष्ठित॥
30.
जननि जनक-वशपर्ति विनययुत सतत रहथि जे
करथि मुदित मन सकल काज ओ करय कहथि जे।
हुनक सकल सुख हेतु यत्न में रहथि सदच्छन
वरु अपने सहि कष्ट प्रतिष्ठित पुत्र क लच्छन॥
31.
माइक बात सुनैत धाख राखथि जे बापक
भाइ बहिनि में प्रीति, भीति राखथि जे पापक।
सीखि नारिगुन होथि जाय पतिघर पुनि धन्या
तारथि दुहुकुल अपन कीर्तिसौं विरल सुकन्या॥
32.
बुझि निजप्रान समान पुतहु पर प्रेम बढ़ाबथि
विथुत होए वरु काज तदपि नहिं टहल अढ़ाबथि।
सहथि सकल अपराध कहथि मृदुबोल सदच्छन
देथि सकल सुख जानु प्रतिष्ठित सासुक लच्छन॥
33.
वसि सासुर निज सासुससुर-सेवा व्रत धारथि
हुनक मनक अनुकूल काज सब घरक सम्हारथि।
नहिं गनि अपन कलेस देस में सुयश बढ़ाबथि
निज प्रसन्नचित रहथि प्रतिष्ठित पुतहु कहाबथि॥
34.
जहि नारिक करकमल अगुनगुन जानि गहै छथि
आजीवन पुनि हुनक संग निष्कपट रहै छथि।
नहिं सपनहु परनारि प्रेम जे हृदय लबै छथि
से सुखयश परिणाम पाबि सतपति कहबै छथि॥
35.
पतिपदपù- पराग प्रेम भमरीवत राखथि
हुनक हृदय अनुकूल वचन मधुमय मृदु भाखथि।
पति-सुख-साधन हेतु कष्ट जे सकल उठाबथि
से पत्नी सुख पाबि जगत में सती कहाबथि॥
36.
साधुक आदर उचित करथि दुष्टक जे निग्रह
बढ़य प्रजा में प्रेम परस्पर हो नहिं विग्रह।
निजसन्तति सम करथि सतत सब विधि जनरक्षण
जन सुखकैं सुख बुझथि प्रशस्त महीपक लक्षण॥
37.
जग में विष्णु-स्वरूप भूपकैं जे जन जानथि
हुनक नियम अनुकूल अपन करतब सब मानथि।
उचित समय कर देथि यथा विधि धन उपजाबथि
पुण्यवान से मनुज प्रतिष्ठित प्रजा कहाबथि॥
38.
सन्तति सौं बढ़ि प्रेम सतत सेवक पर राखथि
छमा करथि अपराध कदाचित कटु नहिं भाखथि।
दय वेतन निर्बाह योग्य निष्कपट सदच्छन
टहल अढ़ावथि यथाशक्ति सत् स्वामिक लच्छन॥
39.
मालिक कैं बुझि इष्टदेव निष्कपट हृदय सौं
विना अढ़ौनहिं करथि काज सब उचित समय सौं।
जे किछु वेतन देथि तही सौं कय निजरक्षण
रहथि तुष्ट मन, मानु प्रतिष्ठित सेवक लक्षण॥
40.
अपने संशयरहित होथि जे तत्त्वज्ञान में
रहय सूक्ष्म सौं सूक्ष्मविषय नित जनिक ध्यान में।
ज्ञान देथि अज्ञान टारि सद्गुरु कहबै छथि
नहिं तौं शिष्य क शपथमात्र में काज अबै छथि॥
41.
लाभ होय लवलेश मात्र जनिक सौं ज्ञानक
बुझि तनिका साक्षात रूप नित श्री भगवानक।
चलथि गुरुक उपदिष्ट नियम अनुसार सदच्छन
सेवा हुनक करैत जानु सत् शिष्यक लच्छन॥
42.
सत्य असत्य विवेक बुद्धि शुभ चरित स्वभावहि
वशमें हो दशलोक जनिक गुनगनक प्रभावहि।
देखथि परगुण मात्र अपन पुनि दोष विचक्षण
जानु एते गुनसहित प्रतिष्ठित पण्डित लक्षण॥
43.
यथास्थान सब वस्तु जात जुगुताय धरै छथि
नित लाभक अनुसार यथोचित खर्च करै छथि।
वरु रहि कष्टक संग अपन जे समय बिताबथि
ऋण नहिं करथि कदापि प्रशस्त मनुष्य कहाबथि॥
44.
सत्य असत्य विवेकशक्ति मनमें जे राखथि
नित निर्भय निष्पक्षबात समुचित जे भाखथि।
दूध पानि सम हंस जकाँ गुनदोष फुटाबथि
निर्णय साफ सुनाय प्रतिष्ठित पंच कहाबथि॥
45.
बाजथि कथा यथार्थ सार्थ श्रुति शास्त्र बखानथि
हृदय दया दाक्षिण्य आत्मवत सबकैं मानथि।
तत्त्वान्वेषण-निरत विरत मदमोह क्रोध सौं
ब्राह्मण जानु प्रशस्त मुदित जे विषयबोध सौं॥
46.
जनरक्षण में दक्ष पक्ष साधुक जे राखथि
उद्दण्डक दय दण्ड सत्य कहिनी जे भाखथि।
निजसुखतत्पर भेल सतत पर सुख जे चाहथि
क्षत्रिय मानु प्रशस्त मान जे अपन निबाहथि॥
47.
कलबल कृषिवाणिज्यनिरत छलबल जे राखथि
किछु असत्य सौं सहित सत्य नियमित जे भाखथि।
मधुर बोल युत एक मोल क्रय विक्रय कारक
से जन वैश्य प्रशस्त जगत में जन दुखहारक॥
48.
प्रतिपल विद्याभ्यास आस नहिं परक धरथि जे
देशकुरीति- सुधार गहन व्रत ग्रहण करथि जे।
पर जीवन- सुख हेतु जनमि जे सुजन मरै छथि
जीवन तनिक प्रशस्त, पेट निज के न भरै छथि!”॥
49.
ई विधि प्रकृतिक प्रकृति विमल निरखैत मुदित मन
गप करैत नृप भवन निकट अयला रघुनन्दन।
घहराइत छल जतय विबिध मंगलमय बाजा
फहराइत छल ध्वजा मत्स्य-अंकित दरबाजा॥
50.
जे क्यौ देखय धनुषयज्ञ आवथि अभ्यागत
नृपनियुक्तजन तनिक सविधि करइत छल स्वागत।
छवि लखि कौशिक मुनिक संग श्री लछुमन राम क
भेल सकलजन निर्निमेषलोचन तहिठाम क॥
51.
माथ रतनमय मुकुट भाल केसरियुत चानन
कुण्डल झलकय कान विजितराकाशशि आनन।
अरुण अधर कृतअधरविम्ब, इन्दीवर- लोचन
आकर्षक जनमनक सकल दर्शक- दुखमोचन॥
52.
विपुलवक्ष आजानुबाहु पहिरन पीताम्बर
शोभित करशर चाप अतुलछवि पुरुष पुरन्दर।
जलद-श्याम ओ कनक-गोर दुहु बन्धुक सूरति
नहिं अघाइ छल नयन निरखि मंगलमय मूरति॥
53.
सादर सविनय पूछि कुशल परिचय परिचारक
पहिने मुनिक पखारि पयर पुनि युगल कुमारक।
कय स्वागत लय संग अजिर- अभ्यन्तर गेला
जतय भूप ओ वीरगनक लागल छल मेला॥
54.
गजरथ घोड़ा बड़दवृन्दसौं पथ सिकस्त छल
तदपि सभक हितहेतु व्यवस्था अति प्रशस्त छल।
अतिथि-निवास-स्थान बनल नव छल कत ठानल
समियाना तम्बू-कनात अगनित छल तानल॥
55.
सब वासा में खाद्य-पेय आसन ओ वासन
छल टहलू गन ठाढ़ पालि भूपक अनुशासन।
कहलनि मुनिसौं हाथ जोड़ि सविनय परिचारक
करू वास तहिठाम जतय मन हो सरकारक॥
56.
भेला लछुमन राम नगर घर देखि चकितचित
सुरपतियो जे निरखि स्वर्ग सौं छला छकितचित।
टेबि सुयोग्य स्थान कयल कौसिक मुनि वासा
रघुवर दुति सौं भेल ततय विकसित सब आसा॥
57.
सुनितहि रामागमन मलिनदुति वीर भूपगन
भेला दिनकर उदय समय नक्षत्र- रूप - सन।
सुनि कौशिक- आगमन जनक आनन्दित भेला
तुरत पुरोहित सहित ततय सहसा उठि गेला॥
58.
कय अभिवादन अर्ध्य आदि सौं कैलनि पूजन
भेला हर्षित पूछि परस्पर कुशल दु-हू जन।
बजला विमल विदेह विज्ञ सविनय मृदुभाषा
“गेल दुरित सब, भेल हमर पूरित अभिलाषा॥
59.
यज्ञ- कर्मतरु सफल सफल आशिष भूदेवक
धन्य हमर दिन आइ धन्य हम सजन ससवेक।
हमर पुण्यफल उदय अनुग्रह श्रीजगदीशक।
नहिं अपुण्यजन- भवन होय आगमन मुनीशक॥
60.
अछि आनन्दक सिंधु हमर सीमाकैं टपने
मुनिवर! कृपया आबि देल दरसन जे अपने।
मुनिक चरणरज-सकल गृहस्थक कल्मष धोइछ
ऋषि आशिष सौं सकल मनोरथ पूरित होइछ”॥
61.
कौसिक मुनि सुनि विनय कहल पुनि नृप विदेह सौं
सरल हृदय प्रतिवचन मधु मृदु भरल नेह सौं।
“पुण्यभूमि-मिथिलेश! अहाँ राजर्षिरत्न छी
विश्व जनक कल्याण हेतु अनुखन सयत्न छी॥
62.
भै गृहस्थ पुनि सकल ज्ञानिगन-अग्र-गन्य छी
जनक जनकसन जनक! जगत में अहाँ धन्य छी।
लौकिक वैदिक कर्मनिरत भय योगयुक्त छी
रखितहु जन में नेह अछैतहु देह मुक्त छी॥
63.
सहि अगनित तप कष्ट अपन हम ज्ञान बढ़ावल
अहाँ भवन रहि ससुख तहू सौं बढ़ि फल पावल।
नहिं अद्यावथि विधिक सृष्टि में जनमल प्रानी
अहाँसनक गम्भीर धीर योगीश्वर ज्ञानी॥
64.
श्रवण तृप्त छल सुनि अहाँक यशगुन अघमोचन
समक्ष बिलोकि आई सानन्द विलोचन।
ई विध गपसप भेल परस्पर शिष्टाचार क
पूछल परिचय पुनि विदेह नृप युगलकुमारक॥
65.
मुनिवर! के ई कुमर मनोहर पूर्ण चान सन
अभिनव सुषमासिन्धु रूपजित- पुष्पवान सन।
संग संग शृंगार वीररस मूर्तिमान सन
तरुनभानु सम तेज लसित विश्वक प्रधान सन॥
66.
धन्य पिता के थिका जनिक अनुपम ई बालक?”
बजला मुनि पुनि सूनि वचन मिथिलाभूपालक।
धर्मधुरन्धर सत्यसन्ध श्रीअवधनरेशक
तनय युगल ई थिका मुकुटमणि भारत देश क॥
67.
अतुल बुद्धि बल नाम राम लछुमन दुहु भ्राता
भेला सिद्धाश्रमनिबासि-मुनिजनमख-त्राता।
अधमताटका नाम राक्षसी कैं चट तारल
मरीचहुकैं तीरवेधि अति दूर निसारल॥
68
पलमें सुभट सुबाहु-आदिनिसिचर कैं मारल
अनायास ऋषि गनक विघ्न बाधा कैं टारल।
सुनि अहाँक यश तथा नगर शोभा मन-भावन
चलला देखय धनुषयज्ञ उत्सव अति पावन॥
69.
पथ में शापित सती अहल्या कैं उद्धारल
मनगत गौतम मुनि क मृषासन्देह निवारल।
पाबि परम सत्कार ततय अहि ठाँ पुनि अयला
देखि अहाँक प्रबन्ध भव्य मृद-उदधिसमयला॥
70.
सतानन्द आनन्द मग्न भै पुलक गात सुनि
निज जननिक उद्धार पिता सौं मिलन बात पुनि।
कय-कय प्रश्न अनेक कुशल पूछल तहिठामक
जहिविधि स्वागत भेल ततय पुनि लछुमन रामक॥
71.
जनक जानि रघुराजकुमर निजघर अभ्यागत
कयलनि हर्षितहृदय मधुर वानी सौं स्वागत।
वत्स! राम! बलधाम मनुज सुरमुनि-मन-भावन
निज आगम सौं कयल हमर आश्रम कैं पावन॥
72.
सार्वभौमनृपकुमर अहाँ छी हमर प्रानसम
जानि अपन घर एतय मानि अपमान मान सम।
जहि वस्तुक हो जखन काज से टहल अढ़ाबी
यज्ञक शोभा युगल बन्धु रहि हमर बढ़ावी॥
73.
सुनि जनकक प्रिय वचन राम बजला मृदु बानी
माननीय मिथिलेश! जानि अपने कैं ज्ञानी।
ग्रहण करय उपदेश देश मिथिला हम ऐलहुँ
सब प्रकार कृतकृत्य सफलजीवन हम भेलहुँ॥
74.
राजन्! देखि अहाँक सगर घर नगर व्यवस्था
चन्द्र-समक्ष चकोर जकाँ अछि हमर अवस्था।
जतहि दैत छी दृष्टि ततहि अनुपम छवि देखी
नहिं सुनने जे छलहुँ वस्तु से एतय परेखी॥
75.
आशिष सौं अपनेक भेल आनन्द पुष्ट छी
लहि इच्छित सब वस्तुजात हम परम तुष्ट छी।
ई विधि दुहुदल छला परस्पर गुनक गान में
सन्ध्यासूचक घड़ी शब्द ता पड़ल कान में॥
76.
लय आज्ञा मिथिलेश सजन चलला निज वासा
शुभसूचक भय गेल लाल छवि पश्चिम आसा।
भय प्रसन्न जनु जानि भावि फल कहय सहासा
धनुष यज्ञ में पड़त दाव पर राम क पासा॥
77.
“राम उठौता धनुष हयत टुकरी बनि थौआ
मानु सगुन कहि कुचरि चलल खोंता दिस कौआ।
द्रुतगति चलि चलि धेनु नेरुसौं मिलि-मिलि घर में
लागलि सूचित करय मिलन सीता-रघुवर में॥
78.
धवल दलक दल दिवस गगन छवि दमकय लागल
मानु जानकि क भाग्य चान बनि चमकय लागल।
वरुनदिशा-छवि अरुन तरुन शशि मध्यगगन में
लसित तरेगन बीच होए भासित जनमन में॥
79.
“मदनमहीपक मानु हेममय मोहर-काटल
रजनी-भामिनि भाल बीच अछि टिकुली साटल।
उडुगन चकमक चारुचिकुर पर चमकी राजय
हरषि लालपट पहिरि-अयोध्या मंगल साजय॥
80.
पाबि योग्य पतिपुत्र मानि गौरब निज भागक
पच्छिम लाली दृश्य-तकर, नहिं सन्ध्यारागक।
अथवा निज नव नीलवसन पर भूषा तागल
मनटीका थिक चान आन खग घुघुरू लागल॥
81.
उडुगन बुट्टा विविध रतनमय खचित सुहाइछ
रात्रिनायिका पहिरि मानु प्रियतम घर जाइछ।
निज प्रियतम क वियोगजनित दुख दैन्य समाइलि।
सतीजकाँ पर पुरुष निरखि कमलिनि सकुचाइलि॥
82.
किन्तु कन्त कर परस पाबि कुमुदिनि हरषाइलि
सौतिनि सोझहुँ अधमनायिका-वत मुसुकाइलि।
चकमक दिसिदिसि भेल विविध मणिमय छवि दीपक
घर घर मंगल गीत नगर भरि जनक महीपक॥
83.
साँझक शोभा परखि अनुजक कर गहलनि
मुनि सौं हँटि किछु दूर राम, लछुमन कैं कहलनि।
वत्स! जनम हो जकर तकर धु्रव मरन एक दिन
होय जकर आगमन तकर निस्सरन एक दिन॥
84.
संचित सकल पदार्थ-सठय विनु ज-तन एक दिन
जकर होय उत्थान तकर पुनि पतन एक दिन।
नहिं ई बुझि जे जन घमण्ड सौं मस्त भेल छथि
तनिक सुशिक्षा हेतु भानु उगि अस्त भेल छथि॥
85.
लछुमन बजला भाइ! तृषित वत नीर अछैतहुँ
छथि विदेह नृप दुखी भानुकुल-वीर अछैतहुँ।
तैं जनु जनक समक्ष ग्लानि सौं ग्रस्त भेल छथि
रवि छपि रहला अचल ओट, नहिं अस्त भेल छथि॥
86.
पुनि नभ निरखि ललाम राम कहलनि लछुमन सौं
देखु तात! अतिचित्र बात उगि माँझ गगन सौं।
किरन पसारि पसारि अपन बुझितहुँ अक्षमता
करय चहै अछि चान जानकि क सुयशक समता॥
87.
“लबब पैघलग उचित” बुझै अछि सब समाज ई
सकुचलि शशि कैं निरखि कमलिनिक उचित काज ई।
किन्तु जानकिक सुयश हुनक पुनि सखिसमाज कैं
निरखि उगल अछि सगन चन्द्र जनु धोय लाज कैं॥
88.
लछुमन बजला “भाइ? अहाँ ई कहल वेद अछि
तदपि अहाँ सौं हमर तर्क में किछु विभेद अछि
विफल यत्न ई जिउब व्यर्थ बुझि मानु लजाइत
पच्छिम सिन्धु समीप जानि अछि डूबय जाइत॥89॥
अथवा जनक समक्ष कलंकिक हेतु लाज की?
कुटिल गनै अछि कतहु अकरतब अपन काज की?।
ई विधि गप कय, मुदित सविधि कय सन्ध्या वन्दन
भोजन ओ विश्राम कयल दुहु दशरथ नन्दन॥90॥
रघुवर-आगम रवि उदय, जनक नगर-जलजात।
विकसित, पुरजन मधुपहित, साँझहि भेल परात॥91॥
कौसिक-जनकक परस्पर, सरस मिलन सौं व्याप्त।
अम्ब चरित में भेल ई, आठम सर्ग समाप्त॥