आठवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
आज हमारा नया वर्ष है।
दूर क्षितिज के स्वर्ण-झरोखे
से नव दिनकर झाँकरहा है,
स्वर्ण-रज्जु की तुला लिये
जीवन का वैभव आँक रहा है।
गत दिवसों की, गत मासों की
गत वर्षों औ’ शताब्दियों की
आज धरोहर रही शेष क्या?
पूछ रहा वह स्वर्ग-धरा से
आज विश्व का हुआ वेष क्या?
मैं ने अभी-अभी जो देखा
वह तो केवल अन्धकार है
दानव की दानवता का
ताण्डव-नर्तन, भीषण हुँकार है।
प्रलयंकर मेघों का गर्जन
प्रलयंकर झंझा का झन-झन
प्रलयंकर विद्युत् का कम्पन
था कि हिमाचल के शृंगों का
ही रे प्रलयंकर संघर्षण।
भूल रहा है आज जगत् का
मानव, मानव की परिभाषा;
आज जगी है उसके उर में
दानव बनने की अभिलाषा।
जितना जिसका एटम पर
अधिकार, वही उतना उन्नत है,
स्वर्ग-मर्त्य-पाताल लोक में
उसकी ही सत्ता स्वीकृत है।
आज विश्व-सभ्यता, संस्कृति
का रे केवल माप यही है,
इसीलिये यह प्रकृति आज
संत्रस्त हुई-सी काँप रही है।
मैंने अभी-अभी जो देखा
वह तो केवल अन्धकार था,
विजन विश्व में जन-जन के मन
का अभावमय चीत्कार था।
किन्तु अरे उस सघन अँधेरे
में प्रकाश की भी पुकार थी,
लील गया मुँह फाड़ उसे तम
किसकी अन्तिम जीत-हार थी?
‘किसकी अन्तिम जीत-हार थी?’
यह भविष्य का प्रश्न, छोड़ दो,
करना है निर्माण नये युग का
अपना मुँह इधर मोड़ दो।
स्वर्ण-तराजू में रखकर मैं
स्वर्ग-धरा को आँक रहा हूँ,
नभ-की नीली चादर पर
सोने की चादर ढाँक रहा हूँ।
मैं स्वर्णिम ताने-बाने से
यह चादर बुन कर लाया हूँ,
तम से कर संघर्ष विकटतम
मैं विजय-श्री ले आया हूँ।
अपनी स्वर्णिम अँजलियों में
भर बरसाऊँगा सोना मैं,
भर दूँगा भूमण्डल का
प्रत्येक आज कोना-कोना मैं।
मैं ही वह प्रकाश जिसकी
उज्ज्वल लौ क्या रे कभी हिली थी?
लील गया मुँह फाड़ लिसे तम
समझा उसको विजय मिली थी!
किन्तु विजय किसकी है, यह तो
समय स्वयं निर्णय कर लेगा,
आज भले तम-कुमुद खिले हों
कल प्रकाश का कमल खिलेगा।
क्या ऐटम का ज्ञान और उस
पर अधिकार, यही संस्कृति है?
क्या इसमें ही निहित विश्व-
सभ्यता-संस्कृति की उन्नति है?
मैं संघर्षों से दुनियाँ के
इन आदर्शों को बदलूँगा,
स्वर्ण-तराजू में रखकर ही
मानवता को मैं तोलूँगा।
तन-मन और आत्मा का
सम्यक् विकास, सर्वांग सन्तुलन।
मानव की सभ्यता-संस्कृति
का स्वरूप करते निर्धारण॥
मनः साधना और आत्म-
चिन्तन संस्कृति के प्राण-ज्योति-कण।
उन्हें प्रज्ज्वलित रखने ही
स्वर्णिम प्रदीप-सा मिला हमें तन॥
केवल तन-पूजन के साधन
एकत्रित करना विलास है।
और आत्म-चिंतन, मन-साधन
भी एकांगी ही विकास है॥
जब तक वाह्य और अन्तर
दोनों में सामंजस्य न होगा।
तब तक संस्कृति और सभ्यता
का सर्वांग विकास न होगा॥
आज सभ्यता और संस्कृति
वाह्य साधनों पर अवलम्बित।
अन्तर दुर्बल; इसीलिये हो
रहा विश्व का कण-कण कम्पित॥
समझ रहा मानव, करता है
एकत्रित साधन विकास के।
किन्तु वही साधन उसके बन
रहे आज साधन विनाश के॥
निज आविष्कारों पर ही कब
मानव रख पा रहा नियंत्रण?
इसीलिये दे रहे विश्व को
आज प्रलय का वे आमंत्रण॥
बौद्धिक वैभव के बल पर
जितना मानव आगे बढ़ पाया।
आत्म-शून्य होकर उतना ही
वह निश्चय पीछे हट आया॥
इसी सभ्यता से सीखी है
मानव ने दानव की भाषा।
भूल रहा है आज विवश हो
कर वह अपनी ही परिभाषा॥
‘अपने को पहचान सके
मानव;’ सभ्यता यही संस्कृति है।
मानव मानव बने इसी में
जगती का कल्याण निहित है॥
मैं अपने स्वर्णिम स्पर्शों से
मिट्टी के बिखरे कण-कण को।
एक रूप देकर सोने का
और अमूल्य बना तृण-तृण को॥
दूर कहीं जाकर सन्ध्या की
गोदी में विश्राम करूँगा।
जाते-जाते भी दुनियाँ की
गोद स्वर्ण से पुनः भरूँगा॥
मैं वह सैनिक हूँ जिसने
बालकपन से संघर्ष किया है।
गिरते-गिरते युद्ध-भूमि को
रक्त-धार से सींच दिया है॥
मैं वह मेरु-शृंग हूँ जिसने
ऊँचे चढ़ना ही जाना है।
गला गात अपना, पृथ्वी पर
स्वर्ण बहाना ही जाना है॥
मैं वह राही हूँ जिसने पथ
पर अविरल चलना सीखा है।
मैं वह स्वर्ण-सुमन जिसने अब
तक केवल खिलना सीखा है॥
इसीलिये मैं जो कुछ प्रण
करता हूँ उसको पूर्ण करूँगा।
जाते-जाते भी दुनियाँ की
गोद स्वर्ण से पुनः भरूँगा॥
फिर भी निशि आयेगी; पर वह
होगी नहीं भयानक काली।
रजत तार से चाँद बुनेगा
उसमें उजियाली की जाली॥
तभी सुनहले दिन होंगे
औ’ रात रूपहली प्यारी-प्यारी।
विहँस खिलेगी विश्व-वाटिका
के जीवन की क्यारी-क्यारी॥
मानव बनकर मानव तब
देवत्व-प्राप्ति का यत्न करेगा।
धरती पर ही बसा स्वर्ग
उसमें नव-नूतन रत्न भरेगा॥
युग-युग के आदर्श विश्व की
मधुर कल्पना सत्य बनेगी।
युग-युग तक मानवता की फिर
अमर कहानी चली चलेगी।
स्वर्ण प्रभात आज का नूतन
देख-देख कलियां मुस्कातीं
विहग-बालिकाएं नव युग के
डाल-डाल पर गीत सुनातीं
सरिताएं मृदु कल-कल स्वर में
गाती जातीं, बहती जातीं,
नवल वर्ष के नव जीवन का
नव सन्देश सुनाती जातीं।
इसीलिए मैं देख रहा हूँ
आज प्रकृति में नया हर्ष है;
नई विश्व-संस्कृति का सूचक
आज हमारा नया वर्ष है।