आत्म-निर्वासन / प्रेमचन्द गांधी
इस बार मैं जाना चाहता हूँ
एक लम्बे निर्वासन में
मैं डूब जाना चाहता हूँ
यथार्थ के गहन अंधकार में
जहाँ चीज़ें इस कदर बदशक्ल हो गयी हैं
कि मैं अपना चेहरा भी ठीक से नहीं पहचान पा रहा
मेरी इच्छा है
इस विभ्रम के तल में जाकर
ख़ुद को भूल जाने की
जब काल के तीनों खण्ड
एकमेक हो गए हैं
मैं उस विस्मृति में जीना चाहता हूँ
जहाँ भूत, भविष्य और वर्तमान से
मैं अलग-अलग सवाल कर सकूँ
दरअसल मेरे सामने
मिट्टी का एक दीपक है
सिंधु घाटी सभ्यता का
मैं इस अंधियारे समय में
इस दीपक के साथ
आई टी की दुनिया में
दाख़िल होना चाहता हूँ
भविष्य के स्वयम्भू प्रहरी
मेरे रास्ते में अवरोध बनकर खड़े हैं
उनके हाथों में
शिव के त्रिशूल से लेकर
गोडसे की बंदूक तक सब हथियार हैं
मैं इन्हें ठेंगा दिखाते हुए
गहन अंधकार से
प्रकाशमान दीपक आगे ले जाना चाहता हूँ
स्थिति बड़ी विकट है
सरकार ने निर्वासन पर
प्रतिबंध लगा दिया है
स्मृतियों में जीना साम्प्रदायिक होना है
और विस्मृति में जीना धर्म विरूद्ध
दीपक जलाना आधुनिकता के खि़लाफ़ है
और अंधेरे को अंधेरा कहना बेहद ख़तरनाक
आप मौन और वाणी से लेकर
किसी भी चीज़ का
हथियार की तरह इस्तेमाल नहीं कर सकते
किसी भी प्रकार का प्रतिरोध
अन्ततः एक राष्ट्रद्रोह है
अगर मुझे अपने पड़ौसी की तरह
गृहमंत्री या प्रधानमंत्री की शक्ल पंसद नहीं
तो इसे भी एक साजिश ही माना जाएगा
इसलिए निर्वासन की मेरी इच्छा
एक कमज़ोर बूढ़े नेतृत्व का प्रतिकार है