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आत्मतुष्टि / उमा अर्पिता

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बासंती उम्र की
आँखों में पलते
गदराये/बौराये सपनों की
एक-एक रेखा को
बड़े यत्न से/जोड़-तोड़कर
एक आकृति बनायी थी,
दुनिया की तमाम
आकृतियों से भिन्न-!

बस, यही एक भूल की(?)

तुमने उस आकृति में/जब-जब
आम रंगों को भरना चाहा,
विशिष्टता के अहं से भरी-भरी
उस आकृति का स्वरूप बिगड़ता गया
क्योंकि वह
आम नहीं खास होना चाहती थी/है!

स्वरचित आकृति के
रूप को अरूप होते देखना
मेरे लिए असहनीय पीड़ादायक है,
फिर क्यों नहीं/तुम उसे
यथावत बना रहने देते...?
बेरंग सही, पर बदरंग तो न होगी...!
मेरी आत्मतुष्टि के लिए
यह भी बहुत है।