भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आत्मतुष्टि / उमा अर्पिता
Kavita Kosh से
बासंती उम्र की
आँखों में पलते
गदराये/बौराये सपनों की
एक-एक रेखा को
बड़े यत्न से/जोड़-तोड़कर
एक आकृति बनायी थी,
दुनिया की तमाम
आकृतियों से भिन्न-!
बस, यही एक भूल की(?)
तुमने उस आकृति में/जब-जब
आम रंगों को भरना चाहा,
विशिष्टता के अहं से भरी-भरी
उस आकृति का स्वरूप बिगड़ता गया
क्योंकि वह
आम नहीं खास होना चाहती थी/है!
स्वरचित आकृति के
रूप को अरूप होते देखना
मेरे लिए असहनीय पीड़ादायक है,
फिर क्यों नहीं/तुम उसे
यथावत बना रहने देते...?
बेरंग सही, पर बदरंग तो न होगी...!
मेरी आत्मतुष्टि के लिए
यह भी बहुत है।