आत्मसंतुष्टि के हत्यारे का बयान / जावेद आलम ख़ान
हम उस युग में जीने को अभिशप्त हैं
जहाँ हमारा भाग्य लेखा हथेलियों और माथे से मिटाकर
भागते समय की पीठ पर टांक दिया गया है
हम इसे निहार तो सकते हैं
मगर पढ़ नहीं सकते
हमने सम्बंधों के पैर काटकर पंख लगा दिए
सारे रिश्ते ज़मीन छोड़कर हवा हवाई हो गए
और धूल भरी आंधियों में खो गए
हम धूल को बुहार तो सकते हैं
रिश्तों को गढ़ नहीं सकते
हम अपनी ही आत्मसंतुष्टि के हत्यारे हैं
अपनी प्रतिभा को आत्ममुग्धता के ताबूत में दफन कर चुके हैं
हमने ज्ञानेंद्रियों को नींद की गोलियाँ खिलाई हैं
सौंदर्य का मापन आंखें नहीं कुंठाएँ करती हैं
उस पर तुर्रा यह कि हम कलावादी हैं
सौंदर्यबोध की डींगें हांकती हमारी पीढ़ी के लिए
संगीत किसी दिलफेंक आशिक की सस्ती दिल्लगी है
कविता हमारे हाथ में थमी आत्मप्रचार की डुगडुगी है