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आत्मसमर्पण / उमा अर्पिता
Kavita Kosh से
आकाश में विचरते
स्वछंद पंछियों की भाँति
तुम्हारी यादें
रोमिल पंखों से युक्त
मेरे हृदयाकाश पर
उड़ान भरती हैं, तब
एक ऐसी गुनगुनाहट
जन्म लेती है, जिसे
तुम्हारे होंठ
आत्मसात करने के
इच्छुक होते हैं, पर
तुम्हारा झूठा अहं उन्हें
ज़बरन रोके रखता है,
लेकिन जब--
मेरी खिलखिलाहटें
तुम्हारी उदासियों पर
बरसने लगती हैं, तब
उनकी सुगंधित बौछारों में
तुम्हारा अहं बिखरने लगता है, और
तुम स्वीकारात्मक मुद्रा में
नत-मस्तक हो उठते हो!
तब मैं--
अपनी सफलता के दर्प में चूर
हठीली/गर्वीली
बालिका-सी
तुम्हारे आत्मसमर्पण पर
मुस्करा उठती हूँ।