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आत्मालाप के क्षण / शचीन्द्र आर्य

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जब कहीं नहीं था, तब इसी कमरे में चुपचाप बैठा हुआ था।
जब कहीं नहीं रहूँगा, तब भी इसी कमरे में चुपचाप बैठा रहूँगा।
इस कमरे में क्या है, यह कभी किसी को नहीं बताया।
एक किताबों की अलमारी, एक किताबों से भरा दीवान
और एक किताबों से अटी पड़ी मेज़।

किताबें मेरे लिए किसी दुनिया का नक़्शा या खिड़की
कुछ भी हो सकती थी, अगर उन्हें पढ़ने का वक़्त होता।
इन्हें पढ़ने का वक़्त
खिड़की के बाहर बिखरी दुनिया को देखने में बिता दिया।

जो भी मेरे सपने हुए, वह इसी खिड़की से होते हुए मेरे भीतर दाख़िल हुए होंगे।
नौकरी, छुट्टी, लिखना, घूमना, तुम्हारे साथ बैठे रहना, किसी बात पर हँसना...
इन सबकी कल्पना मैंने यहीं इसी कमरे में
मेज़ पर कोहनी टिकाए हुए पहली बार कब की, कुछ याद नहीं आता।

यहीं एक छिपकली के होने को अपने अंदर उगने दिया। वह मेरी सहयात्री थी।
वह अक्सर ट्यूबलाइट के पास दिखती। घूम रही होती।
उसे भी सपने देखने थे।
उसके सपने बहुत छोटे थे। किसी कीड़े जितने छोटे। किसी फुनगे जितने लिजलिजे।
मैंने भी अपने छिपकली होने की इच्छा सबसे पहले उसे देखकर ही की थी।
कुल दो या तीन इच्छाओं और छोटे से जीवन को समेटे हुए वह मेरी आदर्श थी।

जैसे आदर्श वाक्य होते हैं, वह इस ज़िंदगी में किसी कल की तरह अनुपस्थित थी।
सोचा करता, तुम भी छिपकली होती, मैं भी तब छिपकली हो आता।
हम किसी सीमातीत समय में चल नहीं रहे होते। बस दीवार से चिपके होते।

इसके बाद एक-एक करके मैंने मेज़, खिड़की, छत, किताब के पन्ने
और स्याही होने की इच्छा को पहली बार अपने अंदर महसूस किया।

जिस उम्र में सबके मन अपने कल के बहुत से रूमानी स्पर्शों से भरते रहे,
मैं अपनी अब तक की असफलताओं पर ग़ौर करते हुए एक आत्मकेंद्रित व्यक्ति बनता रहा।

इन्हीं पंक्तियों में मुझे अपनी कल होने वाली असफलताओं के सूत्र दिख गए।
मैं वहाँ हारा, जिनमें लड़ना या उतरना मैंने तय नहीं किया।
जो जगहें मैंने तय की, उसमें कभी कोई नहीं मिला। मैं अकेला था।

यह किसी रहस्य को जानने जैसा नहीं था,
सब यहाँ इस कमरे में आकर उघड़ गया था।
यह रेत से भरी नदी के यकायक सूख जाने जैसा अनुभव रहा।
रेत थी। सूरज था। उसकी सीधी पड़ती किरणों से तपता एहसास था।

मेरी कोमलतम स्मृतियाँ, जिनसे कभी अपने आज में गुज़रा नहीं था, वह झुलस गई थीं।
क्यों हो गया ऐसा? क्यों वह आगामी अतीत स्थगित जीवन की तरह अनिश्चित बना रहा?
सब इस क़दर उथला था, जहाँ सिर्फ़ अपने अंदर उमस से तरबतर भीगा रहता।
वह नमकीन भरा समंदर होता, तब भी चल जाता। वह कीचड़ से भरा दलदल था।

उस पल यह कमरा, कभी न सूखने वाली नमी की तरह मुझे अपने अंदर महसूस होता।
आत्मालाप के क्षणों में टूटते हुए कितनी बार इसने मुझे देखा। देखकर कुछ नहीं कहा।
मैं कभी नहीं चाहता था, कोई मुझे कुछ कहे। कोई कह देता तो मेरे अंदर कहाँ कुछ बचता।

शायद इन पंक्तियों को पढ़कर भी वह कभी न समझ सकें,
क्यों इस ख़ाली कमरे में छत पंखे को बिन चलाए बैठा रहता।

यहाँ ऐसे बैठे रहने और इसकी तपती ईंटों से निकलने वाला ताप
मेरे अंदर के आँसुओं को पसीने में बदल देता
और देखने वाला आसानी से धोखा खा जाता।

मैं शुरू से यही धोखा देना सीखना चाहता था।
एक धोखेबाज़ की तरह जीना मुझे हमेशा से मंजूर था।