भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आदतन यूँ सोचता है हर कोई / दरवेश भारती

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आदतन यूँ सोचता है हर कोई
उसके साये से नहीं बेह्तर कोई

हैं वो हैरां देखकर ये संगे-मील
जो समझते थे इसे पत्थर कोई

हम भी पा जाते ख़ुदाई मर्तबा
काश ! मिल जाता हमें आज़र कोई

ये है प्यासा,इसमें है सहरा की प्यास
चाहिए इसके लिए सागर कोई

एक मुहताजे-नज़र के वास्ते
सिफ्र से ज़्यादा नहीं मंज़र कोई

जिस्म तो क्या रूह की ज़ीनत बने
है कहाँ किरदार-सा ज़ेवर कोई

राहे-हक़ पर जो नहीं 'दरवेश' आज
लायेगी इसपर उसे ठोकर कोई